SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 91
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 82 ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा +क्या शरीर में से अथवा पर में से वह आनन्द आयेगा? नहीं; उनमें आनन्द है ही नहीं। • तो क्या राग में से-पुण्य में से वह आनन्द आयेगा? नहीं! उनमें आकुलता है; उनमें आनन्द नहीं है। +अब, एक समय की ज्ञानादि पर्याय, उसका आश्रय करने से भी स्थायी आनन्द नहीं आता, क्योंकि वह स्वयं क्षणिक है। इसलिए जो स्वयं शाश्वत् टिकता हो और जिसमें पूर्ण आनन्द भरा हो -- ऐसी वस्तु का अवलम्बन करने से ही सदा रहनेवाला पूर्ण आनन्द अनुभव में आ सकता है; इस प्रकार पर्याय को अन्तर्मुख अभेद करके अपने अतीन्द्रिय आनन्दमय पारिणामिकपरमस्वभावी आत्मा को शुद्धनय से अनुभव करने पर, आनन्द की प्राप्ति होती है। धर्मात्मा, ऐसे आनन्द का जीवन जीता है। अपने सहजस्वभाव में जीव त्रिकाल जीता है। ऐसे शुद्धजीव को लक्ष्य में लेनेवाला शुद्धनय तो पर्याय है परन्तु उसने नजर ध्रुव पर की है। शुद्धनय स्वयं उपयोगात्मक पर्याय है परन्तु त्रिकाली सहजस्वभाव को ध्येय बनाकर उसमें वह अभेद हुई है। वह पर्याय, राग में नहीं अटकती है; राग में अटकी हुई पर्याय से शुद्ध द्रव्य का निर्णय नहीं होता, परन्तु राग से भिन्न होकर शुद्धद्रव्य की ओर डूबी हुई पर्याय से ही त्रिकाली शुद्धद्रव्य का निर्णय होता है। निर्णय करनेरूप कार्य पर्याय में होता है; ध्रुव में वह निर्णय नहीं होता, क्योंकि ध्रुव स्वयं कार्यरूप नहीं है। ज्ञान की दशा, त्रिकाली स्वभाव के सन्मुख हुई, तब सच्चा निर्णय आत्मा में और अनुभव में आया... और वह जीव, मोक्ष के पन्थ में उमङ्गशील हुआ --
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy