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________________ ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा 81 क्षणिक अंश में / पर्याय में बन्धन था और उसका अभाव होने पर पर्याय में मोक्षदशा प्रगट हुई परन्तु उस बन्ध अवस्था जितना कहीं सम्पूर्ण जीव नहीं था और मोक्षदशा जितना भी सम्पूर्ण जीव नहीं है। बन्ध और मोक्ष दोनों अवस्था के समय एकरूप कायम रहनेवाले, परिपूर्ण स्वभावरूप से पहचानने पर, जीव के वास्तविक स्वरूप की पहचान होती है। ' आत्मा का जो परमात्मस्वरूप है, वह स्वरूप अभी भी ऐसा का ऐसा विद्यमान है। उस परमार्थस्वरूप के अवलम्बन से संवर, निर्जरा, और मोक्षदशा प्रगट होती है और आस्रव-बन्ध का अभाव होता है परन्तु प्रगट हुआ और अभाव हुआ - उसकी अपेक्षा ध्रुव परमार्थस्वरूप में नहीं है; इसलिए ध्रुवभावरूप द्रव्य, बन्ध-मोक्ष के परिणाम से रहित है - ऐसा कहा है। वह सम्यग्दर्शन का विषय है; उसमें राग का आश्रय नहीं है। राग से भिन्न होकर ऐसे आत्मस्वभाव को अनुभव में लेना, वह मोक्षमार्ग है। वह पूर्ण आनन्द की प्राप्ति का उपाय है। आत्मा, एक अखण्ड वस्तु है। उसकी स्वसत्तारूप सहज स्वभाव की अस्ति में दूसरा कोई कारण नहीं है। वह पारिणामिकभाव से अनादि-अनन्त है, और उसकी पहचान से शुद्धता तथा आनन्द प्रगट होता है। + हे जीव! तुझे आनन्द चाहिए है न?.... हाँ। • वह अपूर्ण चाहिए या पूर्ण ?.... अपूर्ण नहीं, किन्तु पूर्ण। - वह शाश्वत चाहिए या क्षणिक?.... सदा रहे - ऐसा चाहिए। तो सदा टिके, ऐसा पूर्ण आनन्द कहाँ से आयेगा?
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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