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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
देखने से धारावाहीरूप सम्पूर्ण शुद्ध जीवद्रव्य दिखायी नहीं देता। पर्याय के भेद गौण करके अखण्ड ध्रुवस्वभाव के सन्मुख देखने से, सम्पूर्ण शुद्धजीवद्रव्य प्रतीति में अनुभव में आता है --- ऐसा अनुभव करनेवाले को नित्य और अनित्य के बीच का विरोध मिट जाता है। दो नयों के एकान्त का विरोध मिटकर अनेकान्तस्वभाव का यथार्थ ज्ञान होता है।
देखो, यह सच्चे आत्मा को देखने की विधि ! ऐसे आत्मा को देखने से अपने में ही परमात्मा का साक्षात्कार होता है। उपना स्वरूप अन्दर में विचार करने योग्य है।
बन्ध-मोक्ष, आत्मा की पर्याय में है, बस! अनन्त ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य इत्यादि अवस्था सिद्ध को भी है परन्तु अखण्ड व्य की दृष्टि में वे पर्याय-भेद साधक को दिखलायी नहीं देते। एक --एक पर्याय के भेद को देखने से वह सम्पूर्ण द्रव्य प्रतीति में नहीं आता। जैसे, किसी एक पुरुष के पैर की एक अंगुली में पत्ला डोरा बँधा हो, वह बन्ध अवस्था कहलाती है और वह डोरा छेड़ा तो वह मुक्त अवस्था कहलाती है परन्तु क्या सम्पूर्ण पुरुष बँधा है या छूटा है ? नहीं; उसका एक अंश बन्धरूप था और अंश छूटा है; उस बन्ध-मोक्ष जितना ही कहीं सम्पूर्ण पुरुष नहीं है। 'बँधा हुअ, वह पुरुष' -- ऐसी अकेली बन्ध अवस्था से पहचानो तो सम्पूर्ण पुरुष नहीं पहचाना जाएगा। अकेली छुटकारे की अवस्था में पहचाना तो भी सम्पूर्ण पुरुष नहीं पहचाना जा सकेगा। बन्ध य मोक्ष, दोनों अवस्थाओं के समय एकरूप स्थायी रहनेवाले उसके स्वरूप को देखो तो उस पुरुष की सच्ची पहचान होती है। इस प्रकार जीव । पुरुष, अर्थात् यह चैतन्यस्वरूप आत्मा, उसे एव