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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
यह नहीं है । यह तो भगवान सर्वज्ञदेव द्वारा कथित द्रव्य-पर्यायरूप अनेकान्त वस्तु को दो नयों से देखने की बात है । दोनों नयों से यथार्थ वस्तुस्वरूप का ज्ञान करके, फिर किस तरफ ढलने से धर्म होता है ? - यह बात अलौकिक रीति से आचार्य भगवन्तों ने जिनशासन में समझायी है ।
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अहो! यह तो लोकोत्तरमार्ग है ! यह मार्ग भले ही दुनिया से अलग है परन्तु भगवान के मार्ग के साथ मेलवाला है। दुनिया भले ही कुछ भी कहे, परन्तु प्रभु के मार्ग में तो सन्त पहले हैं; प्रभु को वे प्रिय हैं। शुद्धस्वभाव समझनेवाले सन्तों को भगवान ने मोक्षमार्ग में स्वीकार किया है... यही भगवान की प्रसन्नता है । जगत् के लोग प्रसन्न हों या न हों, परन्तु जो जीव, सर्वज्ञ के इस मार्ग में आया है, वह मोक्ष प्राप्त करेगा ।
मोक्षमार्गपर्याय, नयी प्रगट होती है परन्तु सम्पूर्ण आत्मवस्तु कभी नयी प्रगट नहीं होती, तथा ध्रुवस्वभाव की अपेक्षा से वस्तु कूटस्थ / अपरिणामी है परन्तु पर्याय अपेक्षा से तो वस्तु स्वयं परेणमित होती है; वह कहीं सर्वथा कूटस्थ / अपरिणामी नहीं है । द्रव्यदृष्टि के विषय में उत्पाद - व्यय नहीं आते; सम्पूर्ण ध्रुवतत्त्व एक समय के उत्पाद-व्ययरूप नहीं हो जाता - ऐसा वस्तुस्वरूप तक्ष्य में लेने से पर्यायबुद्धि छूट जाती है और अभेदस्वभाव के अनुभवरूप मोक्षमार्ग प्रगट होता है। चौदहवें गुणस्थान के अन्तिम समय में मोक्षमार्ग की पूर्णता होती है और उस पर्याय का व्यय होने र, मोक्षदशा प्रगट होती है ।
पहले बन्धमार्ग था और मोक्षमार्ग हुआ, तत्पश्चात् मोक्षमार्ग पर्याय गयी और मोक्ष-पर्याय हुई - ऐसे टुकड़े-टुकड़े (भेद से)