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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
-भावरूप है, वह संसार-गोक्ष से रहित है; द्रव्यदृष्टि उसे ग्रहण करती है और धर्मी उसे ध्याता है।
. आठ प्रकार के अशुभ या शुभ जड़कर्म और उनके बन्धन के कारणरूप अशुभ या शुभभाव का कर्ता-भोक्तापना ज्ञानी के ज्ञानभाव में नहीं है। ज्ञानी तो शुद्धवस्तु के सन्मुख होकर अपने शुद्धभाव को ही करता है और भोगता है। प्रभु! तेरी वस्तु की यह वार्ता तेरे कान में पड़ती है, उसे लक्ष्य में तो ले। अपना स्वरूप कैसा है ? उसके निर्णय बिना तू धर्म किसमें करेगा? तेरे स्वरूप के भ्रम से तू दुःख में भटक रहा है। उससे छूटने की यह विधि तुझे समझाते हैं।
तेरी पर्याय में, तेरी भूल से तुझे बन्धन है, तब तो उससे छूटनेरूप मोक्षमार्ग का उपदेश तुझे देते हैं। यदि बन्धन होता ही नहीं, तो मोक्ष के लिए अपने शुद्धात्मा को तू समझ - ऐसा उपदेश किसलिए देते? पर्याय में बन्धन है, उससे छूटने का उपाय है परन्तु उतना ही सम्पूर्ण आत्मा नहीं है। उन पर्यायों के समय ही परिपूर्ण ध्रुवस्वभाव अनन्त शक्तियों से भरपूर है, उसका लक्ष्य करने से बन्धन मिटते हैं और मोक्ष प्रगट होता है। इस प्रकार अपने आत्मा में जो भाव हैं, उनका थोड़ा सा वर्णन किया है। थोड़ा लिखा... बहुत करके जानना' शब्दों में तो कितना आयेगा? उनका वाच्यभाव पकड़कर अन्दर में अनुभव करे, तब पार पड़े ऐसा है।
जड़ का सम्बन्ध, विकार या भेद - यह सब व्यवहारभाव जानने योग्य है परन्तु शुद्धजीव के अनुभव में भेद नहीं है। अनुभव में निर्मलपर्याय प्रगट अवश्य होती है परन्तु वह अभेद हो जाती है, उसका भेद नहीं रहता। वेदान्त / अद्वैत मतवाले कहते हैं कि आत्मा में पर्याय सर्वथा है ही नहीं - यह तो एकान्त है, उनके जैसा