SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 86
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा लक्ष्य से व्यापार करने पर सम्यग्दर्शनादि शुद्धपर्यायों का लाभ होता है । 77 अहो ! निर्मल चैतन्यप्रभु को पुण्य-पाप करने का काम सौंपने में तो बड़ी हानि है, उसने तो हीरा देकर कोयला लिया है। चैतन्यभाव, विकार को करे - ऐसा मानना तो चैतन्यरत्न के बदले में विकाररूपी कोयला लेने जैसा हानि का धन्धा है। भाई ! तू किसका विरोध करता है ? - इसका तुझे भान नहीं है । सन्त, ज्ञान और राग की भिन्नता बतलाते हैं - उसका विरोध करने से तेरे स्वभाव का ही विरोध हो जाता है, उसका तुझे पता नहीं है । बापू ! राग को धर्म मानकर, तू तेरे सत् का ही विरोध करता है। ज्ञानी का भाव तो ज्ञानी के पास है, तू विरोध करे, इससे कहीं उनकी परिणति में नुकसान होनेवाला नहीं है; तेरे उल्टे भाव का नुकसान तुझे ही होगा। इसलिए यह घाटे का धन्धा छोड़... और शुद्ध आत्मा में उपयोग जोड़, जिससे आत्मा को लाभ होवे । बन्ध - मोक्ष पर्याय, वह व्यवहारनय का विषय है । विकल्प तो व्यवहार का विषय और निर्विकल्प श्रद्धा - ज्ञान - चारित्ररूप निर्मल पर्याय के भेद भी व्यवहारनय का विषय हैं। अभेददृष्टि में वे भेद दिखायी नहीं देते; इसीलिए द्रव्यदृष्टि में जीवद्रव्य को बन्ध-मोक्ष परिणामों से शून्य कहा है - ऐसा समझना चाहिए। वे परिणाम होते तो जीव में हैं परन्तु वे पर्याय में होते हैं, अर्थात् पर्यायनय का वह विषय हैं । बन्ध का कारण मिथ्यात्वादिभाव और मोक्ष का कारण सम्यक्त्वादिभाव, ये दोनों पर्यायें हैं; संसार भी पर्याय है और मोक्ष भी पर्याय है। पर्याय, एक समय की होती है और द्रव्य, त्रिकाल एकरूप होता है । त्रिकाली परम चैतन्यभाव पारिणामिक
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy