________________
70
ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
-
आनन्द के अनुभव की शुरुआत ही मोक्षमार्ग है और उसकी पूर्णता, वह मोक्ष है। इस प्रकार मोक्ष और उसका मार्ग, ये दोनों आनन्दरूप हैं; वे कष्टरूप नहीं हैं, उनमें दुःख नहीं है। ऐसे मोक्षमार्ग या मोक्ष, ये दोनों नवीन प्रगट होनेवाली अवस्थाएँ हैं। वे कैसे प्रगट हों? किसके सन्मुख देखने से प्रगट हों? - वह यहाँ बताते हैं। यह सब तेरे आत्मा में समाहित है। पारिणामिकपरमभावरूप जो त्रिकाली ध्रुवस्वभाव, उसमें दृष्टि को एकाग्र करने से सम्यग्दर्शनादि मोक्षमार्ग प्रगट होता है परन्तु ध्रुवस्वभाव स्वयं कहीं नया प्रगट नहीं होता। प्रगट पर्याय कम या अधिक, उसकी अपेक्षा ध्रुव को नहीं है; ध्रुव-शक्ति तो त्रिकाल परिपूर्ण सामर्थ्यरूप पारिणामिकभाव से विद्यमान है। ढंकना या प्रगट होना - ऐसा भेद, ध्रुव में नहीं है; वह तो पर्याय में है। ध्रुवस्वभाव तो द्रव्य के आत्मलाभरूप से सदा ही विद्यमान है। ___ बाह्य निमित्त, जीव को राग कराते हैं, यह बात तो है ही नहीं; यहाँ तो ज्ञानस्वभावरूप से परिणमित आत्मा, राग को कर्ता या भोक्ता नहीं है - यह बात है। शुद्धज्ञान, शुद्धउपादान, उसके त्रिकालभाव में भी राग का कर्तृत्त्व नहीं है और उसकी क्षणिक ज्ञानपर्याय में भी राग का कर्तृत्त्व नहीं है। इस प्रकार राग के अकर्तृत्वरूप से परिणमित होता हुआ आत्मा, शोभित होता है। ऐसे आत्मस्वभाव को समझे तो उपादान-निमित्त के अथवा निश्चय-व्यवहार के सब विवाद या शंकाएँ मिट जाती हैं। स्वतन्त्र चैतन्य-सत्तावाला आत्मा है, उसे द्रव्य में या पर्याय में किसी की अपेक्षा नहीं है। - शुद्धउपादानभूत आत्मा को जाननेवाला ज्ञान, वह मोक्षमार्ग है। वह ज्ञान, पर्यायों के भेद बिना एकरूप परमभाव को ग्रहण