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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा ।
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अवयव है। भावश्रुतज्ञान प्रमाण, वह अवयवी और उसका द्रव्य या पर्याय को जाननेवाला भाग, वह अवयव है। उसमें से द्रव्य को मुख्य करके जाननेवाला अवयव, वह द्रव्यार्थिकनय है और पर्याय को जाननेवाला अवयव, वह पर्यायार्थिकनय है। ___ यह तो मानो कोई विदेश की भाषा होगी! ऐसा किसी को लगता है परन्तु भाई! यह विदेश की भाषा नहीं, यह तो स्वदेश की भाषा है, 'आत्मभाषा है।' तेरे स्वदेश में, अर्थात् आत्मा में जो भरा है, वह बतानेवाली यह आत्मभाषा है। भाषा तो वाचक है परन्तु उसका वाच्यभाव, तेरे आत्मा में भरा है। आत्मा के समक्ष नजर करे तो सब समझ में आ सकता है। अरे! अपनी ही वस्तु अपने को न समझ में आवे - यह कैसे हो सकता है? परन्तु स्वयं ने कभी स्वसन्मुख नजर ही कहाँ की है परन्तु भाई! आत्मा की यह बात समझे बिना तेरे भव का अन्त आनेवाला नहीं है। दूसरी सभी (राग-द्वेष की) बात में कोई दम नहीं है; अकेले शास्त्रज्ञान से भी भव का अन्त नहीं आता है। भावश्रुत द्वारा आत्मा को जानने पर ही भव का पार पाया जा सकता है। ___ आत्मा, अखण्डज्ञान, शान्ति का अखूट भण्डार है, उसमें से चाहे जितना ज्ञान और शान्ति अनुभव करो तो भी कभी कम नहीं होता। आत्मा के ऐसे परमस्वभाव को ग्रहण करनेवाला ज्ञान, वह शुद्धनय है। उस स्वभाव को त्रिकाली शुद्धउपादान भी कहते हैं। आत्मा में दो भाव हैं - एक त्रिकाली और एक क्षणिक। त्रिकाली स्वभाव, वह परमपारिणामिकभाव है; क्षणिकभाव, वे औपशमिकादिक चार भाव हैं। उनका विवेचन आगे करेंगे। ।
आत्मा, अतीन्द्रिय आनन्दस्वरूप है। सम्यग्दर्शन से उस