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ग्रन्थाधिराज समयसारपरमागम पर, अत्यन्त सरलतम संस्कृतभाषा में लिखी हुई आचार्य जयसेन एवं प्रभाचन्द्राचार्य की टीका भी उल्लेखनीय है। परवर्ती आचार्यों की लेखनी को अध्यात्म की धारा में परिवर्तित करने के लिये, समयसार की महती भूमिका को नकारा नहीं जा सकता।
इसी समयसार परमागम की गाथा 320 की जयसेनाचार्य कृत टीका पर परम पूज्य गुरुदेवश्री ने सर्व प्रथम राजकोट और तत्पश्चात् सोनगढ़ में जो प्रवचन प्रदान किये, उनका सङ्कलित संस्करण ब्रह्मचारी हरिभाई ने ज्ञानचक्षु नाम से किया था, उसी का हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत ग्रन्थ है। ___इस गाथा एवं टीका पर पूज्य गुरुदेवश्री ने अनेक बार प्रवचन किये हैं। सच तो यह है कि पूज्य गुरुदेवश्री ने वर्तमान शताब्दी में इस समयसार को जन-जन की वस्तु बनाया है। परमागम समयसार पर 45 वर्षों तक निरन्तर प्रवचन करके, सम्पूर्ण विश्व में समयसारयुग का प्रवर्तन किया है। आज गुरुदेव के प्रताप से आबाल-गोपाल सभी समयसारपरमागम का अध्ययन करने लगे हैं। गाँव-गाँव में समयसार की गोष्ठियाँ एवं जिनमन्दिरों में समयसार की स्थापना हुई है। जिनमन्दिरों की दीवारों पर भी इस परमागम को, उत्कीर्ण कर भौतिकदृष्टि से भी अमर बनाने के उपक्रम हुए हैं और अभी भी निरन्तर जारी हैं।
वर्तमान में पूज्य गुरुदेवश्री, समयसार के पर्यायवाची हैं; उन्होंने विक्रम संवत् 1978 में सर्व प्रथम समयसार प्राप्त करके, अपने को धन्य अनुभव किया और सहज ही उनके अन्तःस्थल से यह उदगार प्रस्फुटित हुए कि अहो! यह तो अशरीरी होने का शास्त्र है! और तभी से उनका अन्तर्मन समयसार की गहराईयों में गोते खाने लगा। उन्होंने अपने जीवन में सैकड़ों बार इस ग्रन्थ का पारायण तो किया ही... सभा में सार्वजनिकरूप से 19 बार इस ग्रन्थ पर आद्योपान्त प्रवचन प्रदान किये। सच में गुरुदेवश्री कानजीस्वामी की अमृतवाणी का सुयोग पाकर, यह परमागम आज जन-जन की आस्था का केन्द्र बन चुका है।