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सम्पादकीय नमः समयसाराय स्वानुभूत्या चकासते।
चित्स्वभावाय भावाय सर्वभावान्तरच्छिदे॥ कालचक्र के अविरल प्रवाह में हुए अनन्त तीर्थङ्करों की पावन परम्परा में इस कल्पकाल में भगवान आदिनाथ से महावीर तक चौबीस तीर्थङ्कर हुए। उनकी परम्परा में आत्मानुभवी समतारस के पिण्ड अनेक वीतरागी सन्त हुए। ____ आज से लगभग 2000 वर्ष पहले जैनशासन के स्तम्भसमान भगवत् कुन्दकुन्दाचार्यदेव हुए, जिन्हें विदेहक्षेत्र में विराजमान भगवान सीमन्धरस्वामी की दिव्यदेशना का रसपान करने का सुअवसर प्राप्त हुआ। आठ दिन तक विदेहक्षेत्र में वैदेही आत्मस्वरूप की आनन्ददायिनी चर्चा का रसपान करके, करुणामूर्ति आचार्यश्री स्वदेश पधारे और भक्तों को दिये.... पञ्च परमागम।
श्रीसमयसार, श्रीप्रवचनसार, श्रीनियमसार, श्रीपञ्चास्तिकाय, एवं श्रीअष्टपाहुड। इन पञ्च परमागमों में सम्पूर्ण दिव्यध्वनि का सार गूंथकर आचार्यदेव ने पञ्चम काल में तीर्थङ्करवत् कार्य किया है। इस उपकार के लिए भरतक्षेत्र के भव्यजीव आपश्री के चिर ऋणी रहेंगे।
पञ्च परमागमों में से शुद्धात्मा का स्वरूप दर्शानेवाला समयसार -परमागम अद्भुत है। जिसे आज से एक हजार वर्ष पूर्व हुए आचार्य अमृतचन्द्रदेव, जगत्चक्षु कहते हैं। __ आचार्य अमृतचन्द्र ने आचार्य कुन्दकुन्ददेव कृत प्राभृतत्रय - - समयसार, प्रवचनसार, पञ्चास्तिकाय पर टीका रचकर, इस काल में मानों गणधर जैसा कार्य किया है।