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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
पर का कर्ता-भोक्तापना नहीं है। मैंने राग करके पुण्यकर्म बाँधा है और उस पुण्य के फल को मैं भोगता हूँ'- ऐसा धर्मी नहीं मानता है। मैं तो ज्ञान ही हूँ और ज्ञान के फलरूप अतीन्द्रिय आनन्द को भोगता हूँ; इस प्रकार धर्मी अपने को ज्ञान-आनन्दरूप ही अनुभव करता है। फिर कोई अशुभकर्म का उदय आ पड़े (जैसे कि श्रेणिक को नरक में पापकर्म का उदय है), वहाँ भी धर्मी जीव, उस अशुभकर्म के फलरूप अपने को अनुभव नहीं करता; वह तो उससे भिन्न ज्ञानरूप ही अपने को अनुभव करता है, अपने आत्मिक आनन्द को ही अनुभव करता है। जो शुभ-अशुभ है, उसके वेदन को अपने ज्ञान से भिन्न जानता है। जैसे - सूर्य, जगत् के अनेक शुभाशुभ पदार्थों को राग-द्वेष के बिना ही प्रकाशित करता है परन्तु उन्हें कर्ता--भोक्ता नहीं है -- ऐसा ही उसका प्रकाशस्वभाव है; उसी प्रकार चैतन्यसूर्य आत्मा भी अपने ज्ञानचक्षु से शुभ-अशुभ पदार्थों को जानता ही है, उन्हें करने या भोगने का उसका स्वभाव नहीं है। ज्ञान तो ज्ञानरूप ही रहता है, ज्ञान का ज्ञानपना स्वयं से है। ऐसे ज्ञानस्वभावी आत्मा का जानकर, उसकी भावना करना .. ऐसा उपदेश है। वह 'भावना', मोक्षमार्ग है।
अज्ञानी अपने ऐसे ज्ञानस्वभाव को भूलकर, राग और पर के साथ एकत्वबुद्धिरूप मिथ्यात्व से संसार में दुःखी हो रहा है। अज्ञान से उसके ज्ञानचक्षु मुंद गये हैं। यहाँ आचार्यदेव, आत्मा का पर से भिन्न अकर्ता-अभोक्ता ज्ञानमात्र स्वभाव बतलाकर उसके ज्ञानचक्षु खोलते हैं। भाई! तू तो ज्ञानस्वरूप है, तेरे चैतन्यचक्षु जगत् के साक्षी हैं परन्तु स्वयं से बाह्य ऐसे रागादि के अथवा जड़ की क्रिया के करनेवाले नहीं है। शुद्धज्ञानचक्षु में परभाव नहीं