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________________ ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा 55 इन्द्रियादि की अपेक्षा नहीं है, ऐसी शुद्धात्मानुभूति इस तात्पर्यवृत्ति का तात्पर्य है। हे जीव! तेरा परमस्वभाव, अर्थात् शुद्धज्ञान; वह ज्ञान, परभावों से शून्य है। अहो! जैसे केवलज्ञान में राग का या पर का कर्ता --भोक्तापना नहीं है; उसी प्रकार ज्ञान के किसी अंश में पर का या राग का कर्ता-भोक्तापना नहीं है। क्या केवलज्ञान राग को करता है? नहीं; तो तेरा ज्ञान भी राग को नहीं करता। आत्मा ऐसे ज्ञानस्वरूप से भरपूर है परन्तु परभावों से खाली है। ___भाई! तेरा ज्ञान तो स्वयं के आनन्द को भोगनेवाला है। ज्ञान में अनन्त सामर्थ्य प्रगट हुई, वह क्या करे? अपने अनन्त आनन्द का वेदन करे, परन्तु पर में कुछ नहीं करे। हे भाई! अनन्त वीर्यसहित ऐसा जो क्षायिकज्ञान है, उसमें भी पर को करने-भोगने की सामर्थ्य नहीं है तो तू तुझमें यह बात कहाँ से लाया? तुझे क्षायिकज्ञान का पता नहीं है; इसलिए तेरे ज्ञानस्वभाव का भी तुझे पता नहीं है। जैसे - केवलज्ञान, सातावेदनीय इत्यादि के परमाणु आवे या जावें, उन्हें मात्र जानता ही है, उसी प्रकार सर्वज्ञस्वभाव की दृष्टिवाले धर्मी-जीव का ज्ञान भी, कर्म को अथवा रागादि को जानता ही है परन्तु उसका ज्ञान, उस अशुद्धता के साथ या कर्म के साथ मिल नहीं जाता; पृथक ही रहता है। ज्ञान के साथ अतीन्द्रिय आनन्द का भोग है परन्तु राग का अथवा पर का भोग, ज्ञान में नहीं है। त्रिकाली द्रव्यस्वभाव में तो पर का कर्ता-भोक्तापना भी नहीं है और उस स्वभाव की दृष्टिरूप जो निर्मलपरिणति हुई, उसमें भी
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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