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________________ 54 ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा प्रमाण जानता है। स्वसंवेदनरूप भावश्रुत में द्रव्य-पर्याय जैसे हैं, वैसे ज्ञात होते हैं। यह अन्दर में भगवान का साक्षात्कार करने की बात है। ध्रुवस्वभावी भगवान का निर्णय करनेवाली पर्याय है परन्तु वह पर्याय कहीं पर्याय के समक्ष देखकर निर्णय नहीं करती; अभेदरूप से ध्रुवसामान्य में दृष्टि करके वह निर्णय करती है और तब उसमें भगवान का साक्षात्कार होता है। ऐसे निज परमात्मद्रव्य को धर्मी जीव, अन्तर्मुख होकर भाता है; खण्डरूप ज्ञान को वह नहीं भाता। इसलिए टीका में अन्त में कहेंगे कि 'ध्याता पुरुष ऐसा भाता है कि सकल निरावरण अखण्ड एक प्रत्यक्ष प्रतिभासमय अविनश्वर शुद्ध पारिणामिक परमभाव लक्षण निज परमात्मद्रव्य, वही मैं हूँ' परन्तु खण्डरूप मैं हूँ - ऐसा वह नहीं भाता है। जहाँ खण्डज्ञानरूप से भी अपने को नहीं भाता, वहाँ शरीर के कर्तापने की या रागादि परभाव के कर्तापने की तो बात ही कहाँ रही? ___अहो! ज्ञानस्वभावी आत्मा को सत्यस्वरूप से सर्वज्ञ भगवान ने जैनशासन में प्रसिद्ध किया है। ऐसे आत्मा को पहचानने से -अनुभव करने से ही जीव का कल्याण है। उसे पहचानकर निरन्तर उसकी भावना करने योग्य है। ध्यान कहो या भावना कहो, वह पर्याय है परन्तु पर्याय स्वयं पर्याय के भेद को नहीं ध्याती है, वह तो अभेद द्रव्य को भाती है -ध्याती है। इसलिए राग के साथ एकता टूटकर, अभेदस्वभाव के साथ एकता होने पर मोक्षमार्ग होता है। अन्तर्मुख होने पर साधक को श्रुतज्ञान में भी ऐसा आत्मा प्रत्यक्षरूप होता है। श्रुतज्ञान होने पर भी आत्मा का जो स्वसंवेदना है, वह प्रत्यक्ष है। उसमें
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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