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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
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शुद्धद्रव्य को देखनेवाली दृष्टि में वे दिखाई नहीं देते। द्रव्यदृष्टि तो परमभाव की ही ग्राहक है। सर्वविशुद्ध पारिणामिक परमभाव को शुद्ध द्रव्यार्थिकनय ग्रहण करता हैपर्यायभेद को वह ग्रहण नहीं करता; इसलिए उस नय की दृष्टि में कर्म का कर्तृत्त्व-भोक्तृत्व या बन्ध-मोक्ष के कारण का ग्रहण नहीं है। वह एकरूप शुद्ध परम द्रव्य को ही देखता है। ऐसा द्रव्यात्मलाभ, वह पारणामिकभाव का लक्षण है। - द्रव्य का निजस्वरूप से अस्तित्व, वह 'द्रव्य-आत्मलाभ' है। आत्मलाभ, अर्थात् स्वरूप की प्राप्ति; द्रव्य के स्वरूप का लाभ। उसका हेतु पारिणामिकभाव है। पारिणामिकभाव से द्रव्य सदा निजस्वरूप से एकरूप अस्तित्ववाला है। परमभावग्राहक दृष्टि से ऐसा द्रव्यात्मलाभ होता है, अर्थात् ऐसा द्रव्यस्वरूप दिखता है। . ध्रुवदृष्टि से देखने पर द्रव्य, ध्रुव है। उस ध्रुवदृष्टि में तो बन्ध-मोक्ष का कारण-कार्यपना नहीं है। एकरूप परमस्वभाव ज्ञायकभाव ही प्रकाशित है। परिणमन, वह पर्यायनय का विषय है। ध्रुवस्वभाव को देखनेवाली पर्याय, अन्तर में अभेद हुई है, वह रागादि का स्पर्श नहीं करती और पर्यायभेद को भी वह स्पर्श नहीं करती। ऐसी अन्तर्मुख दृष्टि होने पर, पर्याय में मोक्षमार्ग प्रगट होता है। वह पर्याय भी रागादि परभावों की कर्ता-भोक्ता नहीं है। - 'आत्मा को बन्धन है और उसका अभाव करके मोक्ष करूँ'ऐसे बन्ध-मोक्ष परिणामरूप जो क्रिया है, वह पर्याय में है। ध्रुवद्रव्य क्रियारूप नहीं है, वह अक्रिय है। पलटे, वह पर्याय; टिके, वह ध्रुव है - ऐसी द्रव्य-पर्यायरूप वस्तु को भावश्रुतज्ञान