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________________ ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा 57 समाता है। ज्ञान में रागादि का कर्तृत्त्व मानना, वह तो आँख से पत्थर उठाने जैसा अनर्थ है। आत्मा, ज्ञानभाव की मूर्ति है, उस ज्ञानरूप से परिणमित ज्ञानी, रागादिरूप से परिणमित नहीं होते। ज्ञान के परिणमन में राग का परिणमन नहीं है। शुद्धपरिणति में अशुद्धपरिणति का कर्तृत्व कैसा होगा? ऐसी शुद्धपरिणतिरूप से परिणमित आत्मा, वह शुद्ध आत्मा है, वह सत्य आत्मा है। आत्मा का ऐसा सत्यस्वरूप समझाकर, ज्ञानी गुरुओं ने भव्य जीवों के ज्ञानचक्षु खोल दिये हैं। अरे जीव! तेरी चैतन्य जाति कैसी है ? तेरी चैतन्य आँख कैसी है? यह उसकी बात है। जगत् का प्रकाशक, किन्तु जगत् से पृथक् ऐसा ज्ञान है, वह तेग स्वरूप है। ऐसे ज्ञानस्वरूप की श्रद्धा करके, उसे अनुभव में ले। राग का काम, ज्ञान को सौंपना वह तो बोझ है। जैसे, चक्रवर्ती से कोई कचरा निकलवाना चाहे तो वह अनर्थ है; उसी प्रकार चैतन्य चक्रवर्ती से विकार का काम कराना चाहे तो वह अनर्थ है, अज्ञान है। आँख से रेत उठाना, वह आँख का नाश करने जैसा है; उसी प्रकार ज्ञानचक्षु से जो जड़ का अथवा पुण्य-पाप का भार उठाना चाहता है, वह ज्ञान का नाश करता है, अर्थात् उसे शुद्धज्ञान की श्रद्धा ही नहीं है। धर्मी तो विकाररहित ज्ञानमात्र भाव से अपने को अनुभव करता है। शुद्धदृष्टि की तरह शुद्धज्ञान भी रागादि का अकर्ता है। ___ क्षायिकज्ञान को अकारक-अवेदक कहा, इससे अकेले तेरहवें गुणस्थान की बात नहीं समझना चाहिए। चौथे गुणस्थान से ही जो शुद्धज्ञानपरिणमन हुआ है, वह भी क्षायिकज्ञान की तरह ही अकारक और अवेदक है। ज्ञान का स्वभाव ही रागादि का अकर्ता और
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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