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________________ ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा 49 इन सबको जानकर, भेदज्ञान द्वारा जड़ और राग से भिन्न – ऐसे ज्ञानस्वभाव के सन्मुख होना, वह मोक्षमार्ग है, उसका यह उपदेश है। मैं ज्ञानस्वरूपी आत्मा हूँ - ऐसी प्रतीति, वह जीवतत्त्व की प्रतीति हुई। ऐसी प्रतीतिपूर्वक कर्म का उदय या निर्जरा, बन्ध या मोक्ष - इत्यादि प्रकारों को तथा शरीर-वाणी के कार्यों को अजीव की अवस्था के रूप में धर्मी जीव जानता है। वह अवस्था मेरी नहीं है और मैं उसका कर्ता नहीं हूँ - ऐसी भिन्नता के भानपूर्वक धर्मी उन्हें जानता है। शुभ-अशुभकर्मों का उदय तो अज्ञानी को भी होता है और ज्ञानी को भी होता है। कई बार अज्ञानी को अमुक प्रकार के शुभ का उदय हो और ज्ञानी को किञ्चित् अशुभ का उदय हो --- ऐसा भी होता है परन्तु ज्ञानी जानता है कि मुझमें उदय है ही नहीं; मैं तो ज्ञान हूँ और अज्ञानी तो उस उदय में ही एकाकारबुद्धि से वर्तता हुआ, ज्ञान को भूल जाता है। ज्ञानी, कदाचित् नरक में हो तो भी उस समय के नरक सम्बन्धी उदय से भिन्न ज्ञानरूप ही अपने को अनुभव करता है ('बाहिर नारकी कृत दुःख भोगत, अन्तर सुखरस गटागटी...') जबकि अज्ञानी, स्वर्ग में बैठा हो तो भी उदय के साथ एकाकार बुद्धि से मिथ्यात्व का ही सेवक होता हुआ दु:खी ही है। जिसे अन्तर के ज्ञानचक्षु नहीं खुले हैं, उसे सुख कैसा? सुख तो अन्तर में है, उसे वह देखता नहीं है। यह तो ज्ञान और राग की सन्धि को छेदकर, अन्दर उतरने की बात है -- तू प्रज्ञाछैनी ज्ञान और उदय की सन्धि सब छेदने... । नरक में तो इतने तीव्र प्रतिकूल संयोग हैं कि ऐसी प्रतिकूलता यहाँ तो किसी को भी नहीं होती है, तथापि ऐसी प्रतिकूलता के प्रसंग के मध्य भी वहाँ के सम्यग्दृष्टि
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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