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________________ ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा की क्रिया, ज्ञान में नहीं है। आत्मा, कर्ता होकर पुद्गल के कार्य को करे या उसके फल को भोगे - ऐसा नहीं होता है। निमित्त --नैमित्तिक सम्बन्ध होने से आत्मा ने कर्म बाँधे या आत्मा ने कर्म छोड़े - ऐसा कथन किया जाता है। निमित्त अपेक्षा से आत्मा को कर्म की निर्जरा इत्यादि का कर्ता कहा, परन्तु शुद्ध उपादानरूप से आत्मा, कर्म के उदय-निर्जरा या बन्ध-मोक्ष को नहीं करता है। उस-उस काल में स्वयं अपने शुद्धज्ञानरूप से परिणमित होते हुए ज्ञानी उन्हें जानता ही है। उसमें इतनी विशेषता है कि उसका शुद्धज्ञान, कर्म की निर्जरा या मोक्ष होने में तो निमित्त है परन्तु कर्म के बन्धन में तो वह निमित्त भी नहीं है। ऐसा शुद्धज्ञानस्वरूपी आत्मा है। भाई! तेरा आत्मा तो ज्ञानसूर्य है। वह चैतन्य किरणवाला है; राग किरणवाला नहीं है। जैसे, सूर्य में से तो तेजस्वी किरणें निकलती हैं, सूर्य में से काली किरणें नहीं निकलती; उसी प्रकार चैतन्यसूर्य में से तेजस्वी ज्ञानकिरण निकलती हैं परन्तु राग या कर्मरूप काली किरणें उसमें से नहीं निकलतीं। जैसे सूरज, काले पदार्थों को भी प्रकाशित अवश्य करता है; उसी प्रकार ज्ञानसूर्य, रागादि भावों को अवश्य जानता है - प्रकाशित अवश्य करता है परन्तु ज्ञान उनका कर्ता नहीं है। देखो! जगत् में आत्मा है और आत्मा के अतिरिक्त दूसरी वस्तुएँ भी हैं। स्व और पर दोनों वस्तुएँ हैं। उनका भेदज्ञान करके स्वसन्मुख एकाग्र होने की यह बात है। यदि आत्मा के अतिरिक्त दूसरी वस्तुएँ जगत् में हों ही नहीं तो भेदज्ञान करने का या स्वसन्मुख ढलने का नहीं रहता। जगत् में चेतन है, जड़ है; ज्ञान है, राग है ..
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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