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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
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ज्ञानी या अज्ञानी सेभी जीवों को अनन्त कर्म रजकण, उदय में आकर प्रति समय खिर जाते हैं। तदुपरान्त ज्ञानी को शुद्धस्वरूप के ध्यानादि से अनन्त कर्म खिर जाते हैं परन्तु वहाँ कर्म की जो अवस्था हुई, उसे तो ज्ञान जानता ही है; कर्ता नहीं है। ज्ञान, राग को भी नहीं करता, तब कर्म की अवस्था को तो कैसे करेगा? फिर कर्म की बन्ध अवस्था हो या उदय अवस्था हो; निर्जरा अवस्था हो या सर्वथा छूटनेरूप अवस्था हो, उससे पृथक् ही परिणमता हुआ, ज्ञान उन्हें जानता है।
सविपाकनिर्जरा और अविपाकनिर्जरा, वह ज्ञानी को भी होती है और अज्ञानी को भी होती है। यहाँ निर्जरा की सामान्य व्याख्या है, अर्थात् कर्मों के रजकण प्रति समय खिरते हैं, वह निर्जरा है; इसलिए अज्ञानी को भी निर्जरा होती है (- ऐसा कहा है)। मोक्ष के कारणरूप जो निर्जरा है, वह तो आत्मा के शुद्धभावपूर्वक होती है - ऐसी निर्जरा, अज्ञानी को नहीं होती। आत्मा में शुद्धि की वृद्धि होवे, उसे भी निर्जरा कहा जाता है। सम्यक्त्वपूर्वक शुद्धि की वृद्धिरूप जो निर्जरा है, वह मोक्ष का कारण है और ऐसी निर्जरा तो धर्मी को ही होती है परन्तु ऐसी निर्जरा के समय भी कर्म में जो निर्जरारूप अवस्था होती है, उसका कर्ता ज्ञानी नहीं है; ज्ञानी तो अपने शुद्धज्ञान परिणमन का ही कर्ता है।
यह शद्धात्मा का वर्णन है। शुद्धज्ञानरूप से परिणमित जीव को स्वभावसन्मुखता से कर्म छूटने लगे, वहाँ ज्ञान का कार्य, कर्म को छुड़ाने का नहीं है परन्तु ज्ञानरूप से परिणमित होना ही ज्ञान का कार्य है। स्वभाव की विमुखता से बँधे हुए कर्म, स्वभाव की सन्मुखता से अवश्य छूट जाते हैं परन्तु वह कर्म को बाँधने छोड़ने