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________________ 50 ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा जीव, आत्मा के आनन्दरस को भोग रहे हैं। संयोग से पृथक् ही चिदानन्दस्वभाव को अन्दर में देखकर आनन्द को भोगते हैं। यद्यपि अमुक दु:ख का वेदन है परन्तु उस वेदन में ज्ञान, एकाकार नहीं होता; इसलिए ज्ञान उसका भोगता नहीं है, ज्ञान तो उससे पृथक् रहकर उसे जानता ही है और अतीन्द्रिय आनन्द में एकाकार होकर उसकी मौज करता है। मांही पड्या ते महा सुख माने... देखनारा दाजे जोने... ऐसा कहा जाता है न! यहाँ तो देखनेवाले जलते नहीं, परन्तु देखनेवालो को ही आनन्द होता है - ऐसी बात है। अतीन्द्रिय आनन्द के अनुभव में पड़े हुए सन्तों को देखने पर, मुमुक्षु को आनन्द होता है। प्रतिकूल संयोग, वह कहीं दु:ख नहीं है और अनुकूल संयोग, वह कहीं सुख नहीं है। स्त्री, पैसा, मकान इत्यादि में कुछ सुख तो है नहीं, परन्तु अज्ञानी ने सुख की कल्पना की है। अरे! चैतन्य आत्मा अन्दर में आनन्दरस का सागर है, उसमें दृष्टि करनेवाले और उसमें एकाग्र होनेवाले जीव, परम सुखी हैं । वे कर्म के चार प्रकारों को और इसी प्रकार समस्त पदार्थों को जानते हैं परन्तु उन्हें करते. गोगते नहीं हैं; ज्ञानरूप ही रहते हैं - ऐसी शुद्धज्ञानदशा, वह धर्म है, वह मोक्षमार्ग है। ___ जैसे - आँख, पदार्थों को मात्र देखती है, उन्हें अपने में ग्रहण नहीं करती; उसी प्रकार आत्मा की आँख, अर्थात् शुद्धज्ञानपरिणति भी, राग-द्वेष को, पुण्य-पाप को करती-भोगती नहीं है, उसे रचती नहीं है, ग्रहण नहीं करती, उनसे पृथक् ही वर्तती है। यदि अग्नि को भोगने जाए तो आँख जल जाएगी। यदि ज्ञानचक्षु, रागादि को भोगने जाए तो उसकी शान्ति जल जाएगी। राग तो
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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