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________________ ज्ञानचक्षु: भगवान आत्मा 41 की आँख है। आँख क्या करे? जाने-देखे। क्या आँख से गड्ढा खोदा जाता है या रेत उठाई जाती है ? नहीं; आँख पर कोई बोझ नहीं है। इसी प्रकार ज्ञानचक्षु जगत् को देखनेवाला नेत्र है, उस ज्ञाननेत्र में रेत का, अर्थात् जगत् के रजकणों का ग्रहण-त्याग नहीं है। राग के कर्ता-भोक्तापने का बोझ भी ज्ञानचक्षु में नहीं है। तत्त्वदृष्टि से पर से भिन्न निर्लेप भगवान आत्मा, ज्ञानमय है; कर्म की बन्ध-मोक्ष अवस्था पुद्गलमय है, वह अनात्मा है; ज्ञान उसकी रचना नहीं करता। जड़-चेतन की ऐसी स्वतन्त्र वस्तुस्थिति, जगत् में अनादि से है, वह स्वयंसिद्ध है; कहीं भगवान ने उसे बनाया नहीं है; भगवान ने तो जैसी वस्तुस्थिति थी, वैसी जानी है। शुद्धज्ञाननेत्र में लोकालोक को जानने की सामर्थ्य है; करने की नहीं। ऐसा ज्ञानमात्र भाव मैं हूँ' - ऐसा जानना, अर्थात् अनुभव करना, वह मोक्षमार्ग है - ऐसा मार्ग वीतराग का, कहा श्री भगवान। समवसरण के मध्य में, सीमन्धर भगवान॥ प्रश्न - केवली भगवान को तो अनन्त वीर्य प्रगट हुआ है। यदि भगवान पर का कुछ नहीं करते तो उनमें अनन्त वीर्य / बलं क्यों कहा जाता है? उत्तर - भगवान को अपने अनन्त गुणों की निर्मलपर्यायें रचने की सामर्थ्य प्रगट हुई है। इसलिए अनन्त वीर्य है। केवलज्ञान के साथ ऐसा अनन्त निज बल प्रगट हुआ, परन्तु वह निज बल कहीं पर में काम नहीं करता है। अपनी सम्पूर्ण आत्मशक्ति अपने में कार्य करती है; पर में वह कुछ भी काम नहीं करती है। भगवान
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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