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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
को सम्पूर्ण शक्तियाँ प्रगट हुई, इससे कहीं वे पर को उभार दे. -- ऐसा पर का कर्तृत्व उनमें नहीं है।
अहो! जो क्षायिकज्ञान प्रगट हुआ, उसकी कोई अचिन्त्य महिमा है परन्तु वह सब महिमा, स्वयं में समाहित है; पर में नहीं जाती। पर का कुछ कर दे तो केवलज्ञान की महिमा कहलाती है -- ऐसा नहीं है। ज्ञान तो स्थिरस्वभावी है, वह अपने में स्थिर रहे
और निजानन्द को भोगे, दूसरे में कुछ करे या भोगे नहीं। आचार्यदेव कहते हैं कि हे जीवो! तुम्हारा ज्ञानस्वभाव भी ऐसा ही है। ऐसे ज्ञानस्वभाव को प्रतीति में और अनुभव में तो लो।
• केवली भगवान शुद्धज्ञानपरिणत हैं।
•साधक-धर्मात्मा भी शुद्धज्ञानपरिणत हैं। ___ इन दोनों के ज्ञान में पर का अकर्ता-अभोक्तापना है। राग का भी कर्ता-भोक्तापना उसमें नहीं है। ऐसे ज्ञानरूप से परिणमित जीव, स्व-पर को जानता है; पर में क्या बाकी रहा? कर्म का बन्ध--मोक्ष या उदय-निर्जरा इत्यादि सबको भी जानता ही है। केवली भगवान को तेरहवें गुणस्थान में प्रति समय, साता के रजकण आते हैं और उसी समय निर्जरित हो जाते हैं तथा दिव्यध्वनि इत्यादि के कारणरूप कर्म भी उदय में आकर क्षय होते जाते हैं। उन्हें भगवान का क्षायिकज्ञान जानता ही है परन्तु कर्ता या भोक्ता नहीं है। यह तो बड़े का दृष्टान्त दिया है किन्तु सभी जीव ऐसे ही ज्ञानस्वरूप हैं।
चैतन्यस्वभाव में पुद्गलों का या परभावों का ग्रहण त्याग नहीं है। ऐसे स्वभाव का जहाँ सम्यक् अनुभव हुआ, वहाँ पर्याय भी
मोक्ष या उस तेरहवें गुणारित हो जा