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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
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अरे भाई! पहले भी तू कहाँ बोलता था कि अब बोलने से इन्कार करता है ? 'मैं वाणी नहीं बोलूँ, अर्थात् मैं भाषा को नहीं परिणमाऊँ' - ऐसा मानने में भी जड़ की कर्ताबुद्धि खड़ी है। भाषा बोलना, वह जड़ की क्रिया है और भाषा बोलते रुक जाना, वह भी जड़ की क्रिया है।
प्रश्न - समयसार की पहली गाथा में ही वोच्छामि... मैं समयसार कहूँगा! ऐसा कुन्दकुन्दाचार्यदेव ने कहा है; अत: आत्मा, भाषा का कर्ता हुआ या नहीं?
उत्तर - नहीं; वह तो उस काल में कैसा विकल्प (समयसार लिखने का) वर्तता है, उसकी बात है। उसी काल में उनका ज्ञान तो उस विकल्प और वाणी दोनों के अकर्तारूप ही परिणमित हो रहा है। उस ज्ञानमात्र को ही उनका आत्मा करता है; वाणी को अथवा विकल्प को नहीं। वे शुद्धज्ञानपरिणत हैं -- ऐसा पहचानने पर ही कुन्दकुन्द प्रभु को पहचाना कहा जाता है। उस वाणी के कर्तारूप या विकल्प के कर्तारूप पहचानता है, उसने ज्ञानी को वास्तव में नहीं पहचाना है। ज्ञानी कहते हैं कि हम वाणी में अथवा विकल्प में नहीं खड़े हैं; हम तो अपने ज्ञानस्वभाव में ही हैं। वाणी के या विकल्प के कर्तारूप से हमको मत देखना, यदि देखेगा तो तेरे ज्ञान में भूल होगी। केवली भगवान की तरह शुद्धज्ञानपरिणतिरूप से परिणमित कोई भी जीव, शरीर मन-वाणी कर्म-बन्ध- पोक्ष को अथवा राग को नहीं करता, तो क्या करता है? जानता ही है, अर्थात् शुद्धज्ञानरूप ही रहता है। वह 'जानता ही है' .. ऐसा जो भाव है, वह मोक्षमार्ग है।
आत्मा, अर्थात् चैतन्यचक्षु। चैतन्यस्वरूप आत्मा तो जगत्