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________________ ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा 39 के ढेर, वह कोई भगवान के ज्ञान का कार्य नहीं है। उसमें कहीं भगवान का ज्ञान, प्रविष्ट नहीं है। भगवान ने वाणी की, भगवान ने उपदेश दिया - ऐसा शास्त्र में कहा गया हो तो वहाँ वह उपचार से ही कहा गया है। वहाँ तो वाणी के समय कैसा ज्ञान निमित्त है ? -- यह बतलाने के लिए उपचार किया है परन्तु वस्तुत: अरूपी ज्ञान में वाणी इत्यादि का कर्ता-भोक्तापना नहीं है। ऐसे ज्ञानस्वरूप से भगवान को पहचाननेवाले ने ही भगवान को पहचाना कहा जाता है। ___तीर्थङ्कर को वाणी का अद्भुत योग होता है, यह सत्य है। दूसरे को वैसी वाणी नहीं होती, तथापि वह वाणी, जड़ का परिणमन है; भगवान के आत्मा का वह कार्य नहीं है। वाणी, कार्य और क्षायिकज्ञान, उसका कर्ता -- ऐसा वास्तव में नहीं है तथा उस समय गणधरदेव को बारह अङ्गरूप भावश्रुतज्ञान विकसित हुआ, वहाँ वाणी, कर्ता और गणधर का ज्ञान, उसका कार्य - ऐसा भी नहीं है। देखो तो सही, ज्ञान का निसलम्बी स्वभाव! ज्ञान, वाणी को उत्पन्न नहीं करता और वाणी से ज्ञान उत्पन्न नहीं होता। भले ही दिव्यध्वनि के पीछे निमित्तरूप केवलज्ञान ही होता है; किसी अज्ञानी का ज्ञान उसमें निमित्तरूप नहीं होता। समयसार की रचना के पीछे कुन्दकुन्दस्वामी का ही ज्ञान, निमित्तरूप होता है। कहीं अबुध गँवार का ज्ञान वहाँ निमित्तरूप नहीं होता, परन्तु इससे कहीं ज्ञान और वाणी को कर्ता-कर्मपना नहीं है; दोनों तत्त्व ही पृथक् हैं। ज्ञान अपने ज्ञानरूप में ही परिणमित हो रहा है, वह कहीं वाणी में नहीं जाता। ___ कोई कहे - आप कहते हो कि आत्मा नहीं बोलता, तो अब हम नहीं बोलेंगे, बस!
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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