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________________ 38 ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा भगवान में नहीं है। साधक की शुद्धदृष्टि और केवली का क्षायिकज्ञान - ये दोनों, कर्म की अवस्था के अकर्ता - अभोक्ता हैं । भगवान! तेरा आत्मा ऐसा सर्वज्ञस्वभावी है, उसमें दृष्टि कर तो राग के कर्तृत्वरहितवाला शुद्धपरिणमन होने पर तुझे आनन्द का वेदन होगा । उस आनन्ददशा में दुःख का कर्तृत्व या भोक्तृत्व नहीं रहता है, तब पर को करने - भोगने की तो बात ही कैसी है ? जहाँ शुद्धज्ञान की दृष्टि प्रगट हुई, वहाँ से अकर्ता - अभोक्तापने का परिणमन शुरु हुआ, वह बढ़ते-बढ़ते ठेठ क्षायिकज्ञान तक पहुँचा है । जैसे, धर्मी की दृष्टि परभाव की कर्ता-भोक्ता नहीं है, वैसे ही ज्ञान भी परभाव का कर्ता-भोक्ता नहीं है। ज्ञान का कार्य, ज्ञान में ही समाहित होता है; (ज्ञान से) बाहर नहीं जाता है । वाह, देखो तो वास्तविक आत्मा का स्वभाव ! सम्पूर्ण आत्मा ही ऐसा है । तुझे अपने आत्मा को पहचानना हो या भगवान को पहचानना हो तो ऐसे स्वरूप से पहचानना; उसमें बीच में दूसरी मिलावट करने जायेगा तो सच्चा स्वरूप नहीं पहचाना जाएगा। तीर्थङ्कर भगवान पहले साधकदशा में मुनिरूप से थे, तब तो मौनरूप से वन–जङ्गल में रहते थे और अब क्षायिकज्ञान - केवलज्ञान हुआ, तब तो समवसरण में दिव्यपुण्य का वैभव भोगते हैं और दिव्यध्वनि करते हैं - इस प्रकार जो भगवान को पर का कर्ता -भोक्तारूप से देखता है, उसने भगवान को पहचाना ही नहीं है । तुझे आत्मा को पहचानना हो तो तू भगवान को ज्ञानस्वरूप पहचान। भगवान का आत्मा तो ज्ञानमात्र भाव में तन्मयरूप से वर्तता है। यह वाणी, यह समवसरण, यह बारह सभाएँ - इत्यादि पुण्य
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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