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________________ ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा 37 है - उसमें भगवान को क्या? भगवान तो उस समवसरण के और वाणी के ज्ञाता ही हैं; उसके कर्ता-भोक्ता नहीं हैं और वे क्रियाएँ भगवान को किञ्चित् भी बन्ध का कारण नहीं होती, क्योंकि उस काल में भी भगवान का आत्मा तो क्षायिकज्ञान में ही परिणमित हो रहा है; उदय का कर्ता-भोक्तापनेरूप नहीं परिणमता है। क्या भगवान बोलते हैं ? नहीं। भगवान नहीं बोलते; वचनवर्गणाएँ बोलती हैं। भाषा तो रूपी है - अचेतन है-कर्णगोचर है; अरूपी आत्मा में से वह नहीं निकलती; वह तो पुद्गल की रचना है। ___भाई! जड़-चेतन की भिन्नता का सच्चा ज्ञान तो कर! सच्चा ज्ञान करनेवाले को जिनवाणी का जैसा बहुमान आयेगा, वैसा अज्ञानी को नहीं आयेगा। अहो! वीतराग का यह कोई अलौकिक विज्ञान है, वीतराग का पन्थ, जगत् से अलग है। दिव्यध्वनि का धोध / प्रवाह छूटता हो, इन्द्र और गणधर आदरपूर्वक सुनते हों, तथापि उस वाणी के कर्ता भगवान नहीं हैं और सुनने के शुभराग का कर्ता भी ज्ञानस्वभावी आत्मा नहीं है। ज्ञान का कार्य, ज्ञान में ही समाहित है; ज्ञान का कार्य, वाणी में या राग में नहीं आता। ऐसे ज्ञानस्वभावी आत्मा को पहचाने, तब केवली की और धर्मी की सच्ची पहचान होती है और तब स्वयं में धर्म का प्रारम्भ होता है। धर्म कहो या मोक्ष का मार्ग कहो; धर्म करे और मोक्ष का पता न पड़े --- ऐसा नहीं होता। - केवलज्ञान होने पर पहले ही समय में भगवान ने तीन काल -तीन लोक को जान लिया है। कौन से परमाणु कब वाणीरूप से परिणमित होंगे? - यह भी पहले से ही जान लिया है। वाणी के परमाणुओं को भगवान ग्रहण करते हैं या छोड़ते हैं - ऐसा कर्तृत्व
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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