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________________ ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा ___ 17 भाई! तू ज्ञान है; तेरा ज्ञानस्वभाव कैसा है? - उसे तू पहचान। 'सर्वविशुद्धज्ञान', अर्थात् रागादिरहित शुद्धज्ञान। उसका स्वरूप समझाते हुए आचार्यदेव ने कहा कि आत्मा, जब तक राग और ज्ञान का भेदज्ञान नहीं करता और अज्ञानभाव से कर्म तथा कर्मफल के कर्ता-भोक्तापन में तल्लीन वर्तता है, वहाँ तक वह मिथ्यादृष्टि --संसारी है और जब भेदज्ञान करके ज्ञायक-दर्शकभावरूप से परिणमित होता है, तब वह मुक्त है; वह कर्म को अथवा उसके फल को कर्ता--भोक्ता नहीं है। कर्मचेतना और कर्मफलचेतना, इन दोनों से रहित अपनी ज्ञानचेतनारूप से परिणमित होता है। ज्ञानचेतना कहो या सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र कहो, एक ही है। उसरूप से जो जीव परिणमित हुआ है, वह मुक्त ही है। अज्ञान में परभावों का कर्ता-भोक्तापना था; ज्ञान में उसका अभाव है। आचार्यदेव कहते हैं कि ऐसा जानकर, हे जीवों! हे आत्मबुद्धिवाले प्रवीण पुरुषों! तुम अज्ञानीपन को छोड़ो और एक शुद्ध आत्मामय ज्ञानतेज में ही निश्चल होकर, ज्ञानीपन का सेवन करो। ज्ञानी की ज्ञानचेतना का स्वरूप कोई अद्भुत है। वह कर्मचेतना से रहित होने से अकर्ता है और कर्मफलचेतना से रहित होने से अभोक्ता है। इस प्रकार ज्ञानचेतनावन्त ज्ञानी, कर्म को कर्ता या भोक्ता नहीं है। अकेली ज्ञानचेतनामय होने से वह केवल ज्ञाता ही है। इसलिए शुभ-अशुभ कर्मबन्ध को तथा कर्मफल को केवल जानता ही है। इस प्रकार ज्ञानस्वभाव में ही निश्चल होने से 'स हि मुक्त एव'।
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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