________________
16
ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
उनका कर्ता होना माने तो उस मिथ्यात्वरूप भ्रम से वह स्वयं दु:खी होता है। अज्ञानी अपने में भ्रम भले ही करे, तथापि पर के काम तो वह भी नहीं कर सकता। अरे, तू ज्ञान ! ज्ञान में तो जड़ का अथवा राग का कार्य कैसे होगा? यहाँ तो अभी जीव में भी उसके पाँच भावों का सूक्ष्म स्वरूप समझायेंगे और उसमें से मोक्ष का कारण कौन सा भाव है, यह बतलायेंगे।
भाई! अपने ऐसे सत् स्वरूप को तू जान! तेरा सत् स्वरूप तो ज्ञानमय है; राग में कहीं तेरा सत्पना नहीं है। राग से लाभ मानने जाएगा तो तेरे सत् में ठगा जाएगा। तेरे सत् में तो ज्ञान-आनन्द भरा है। तेरी सत्ता जाननेरूप ज्ञानभाव में है। तेरा आत्मा, अनन्त गुणों से अभेद है। वह जहाँ गुणभेद के विकल्प से भी अनुभव में नहीं आता, वहाँ रागादि का कर्ता-भोक्तापन उसके अनुभव में कैसा? शीतल बर्फ की शिलासमान जो शीतल चैतन्यशिला, उसमें से रागादि-विकल्पोंरूपी अग्नि कैसे निकलेगी? जिसमें जो तन्मय होता है, उसे ही वह कर अथवा भोग सकता है परन्तु जो जिससे भिन्न होता है, वह उसे कर या भोग नहीं सकता। ज्ञान के अतिरिक्त दूसरे भाव को करे या वेदन करे, वह सच्चा आत्मा नहीं है। रागादि परभावों का कर्तृत्व देखनेवाले को सच्चा आत्मा नहीं दिखता।
द्रव्यस्वभाव में राग-द्वेषादि नहीं हैं; इसलिए उस स्वभाव को देखनेवाली ज्ञानदृष्टि में भी राग-द्वेष का कर्ता-भोक्तापना नहीं है। राग-द्वेष की उत्पत्ति, ज्ञान में से नहीं होती। राग और ज्ञान, त्रिकाल भिन्न हैं -- ऐसा अपूर्व भेदज्ञान, वह आनन्द से भरपूर है और वही जन्म मरण के अन्त का उपाय है।