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________________ ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा अहो ! अरहन्तों का मार्ग अपूर्व है, उसमें राग की अपेक्षा ही कहाँ है ? अकेला अन्तरस्वभाव का मार्ग... अन्य सबसे निरपेक्ष है । 15 ईंधन सुलगकर अग्नि होती है, वहाँ आँख उसे करती नहीं है; आँख तो देखती ही है। अग्नि की विशाल लौ को देखकर आँख गर्म नहीं हो जाती । यहाँ बाहर की आँख का दृष्टान्त देकर, अन्तर का ज्ञानस्वभाव समझाना है । सिद्धान्त समझानें के लिए दृष्टान्त कहा जाता है परन्तु दृष्टान्त को ही पकड़कर अटक जाए तो अकेले दृष्टान्त में से कुछ पार पड़े, ऐसा नहीं है । अन्तर की वस्तु को लक्ष्य में लेने से ही सच्चा ख्याल आता है । यों तो जगत् में कोई द्रव्य किसी दूसरे द्रव्य की क्रिया नहीं करता, परन्तु यहाँ तो अभी आत्मा के ज्ञायकस्वभाव की बात समझाना है । 1 1 जिस प्रकार आँख, बाहर के पदार्थों से दूर रहकर देखती है परन्तु उन्हें करती नहीं है; उसी प्रकार आत्मा के ज्ञानस्वभाव से राग दूर है - भिन्न है - अन्य है; वह राग को या शरीरादि की क्रिया को करे - ऐसा आत्मा के ज्ञान में नहीं है। अज्ञान में रागादि का कर्तृत्व है परन्तु पर का कर्तृत्व तो अज्ञान में भी नहीं है । अज्ञानी मिथ्याबुद्धि से पर का कर्तृत्व मानता है परन्तु बापू! आँख की तरह ज्ञान, जगत् को जानता अवश्य है किन्तु जगत् के काम नहीं करता । जिस प्रकार आँख से अग्नि नहीं जलायी जा सकती; उसी प्रकार आत्मा से जगत् के काम नहीं हो सकते । 1 जगत् के समस्त पदार्थ, स्वतन्त्र अपनी-अपनी शक्तिरूप ऐश्वर्यवाले ईश्वर हैं, वे स्वयं अपने काम करनेवाले हैं; उनके अधिकार में बीच में कोई भ्रम से उनका ईश्वर होने जाए, अर्थात्
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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