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________________ ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा इस प्रकार ज्ञानी की ज्ञानचेतना में कर्म का अकर्तापन और अवेदकपन बतलाकर, इस 320 वीं गाथा में यह बात दृष्टान्तपूर्वक समझाते हैं। - ज्ञान का स्वरूप समझाने के लिए आचार्यदेव ने दृष्टि का दृष्टान्त दिया है। जिस प्रकार दृष्टि अर्थात् आँख, बाह्य पदार्थों को करती-भोगती नहीं है; जैसे, अग्नि के संसर्ग में रहनेवाला लोहखण्ड का गोला, स्वयं ऊष्ण होकर अग्नि की उष्णता का अनुभव करता है, अर्थात् स्वयं ऊष्ण होता है परन्तु उसे देखनेवाली दृष्टि / आँख कहीं गर्म नहीं होती, क्योंकि उसे अग्नि के साथ संसर्ग नहीं है, एकता नहीं है। यह सबको दृष्टिगत हो, ऐसा दृष्टान्त है। इसी प्रकार आँख की तरह शुद्धज्ञान भी कहीं परद्रव्य को अथवा रागादि को भोगता नहीं है। वह ज्ञान, राग के संसर्गरहित है। शुद्धज्ञान, अर्थात् अभेदनय से उस शुद्धज्ञानपरिणतिरूप से परिणमित जीव, वह जाननेवाला ही है; कर्म का कर्ता-भोक्ता नहीं है। जहाँ कर्मों का कर्ता-भोक्ता नहीं है, वहाँ उसे बन्धन भी कहाँ से होगा? इसलिए वह मुक्त ही है - स हि मुक्त एव। जिस प्रकार आँख, पर से पृथक् है; उसी प्रकार ज्ञान, पर से पृथक् है। जैसे आँख, वैसे ही ज्ञान पर को देखता है परन्तु उसे करता या भोगता नहीं है। पदार्थ को देखनेवाली आँख, उसे दूर या समीप नहीं करती। स्वर्ण दिखे, इसलिए उसे समीप लाना या कोयला दिखे, इसलिए उसे दूर करना, यह आँख का कार्य नहीं है; आँख का कार्य तो दोनों को देखना ही है। इसी प्रकार आत्मा का ज्ञानचक्षु, परद्रव्य को प्राप्त नहीं करता, छोड़ता नहीं है; मात्र जानता
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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