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________________ ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा परिणति द्वारा धर्मी अनुभव करता है - ध्याता है - भाता है। ध्याता पुरुष अपने आत्मा को ऐसा ध्याता है, वही मोक्ष के कारणरूप ध्यान है । अपने से भिन्न चीज - अनन्त परमेश्वर भगवन्त हुए, उनसे तो स्वयं भिन्न है; ध्याता स्वयं तो अपने ही आत्मा को परमात्मस्वरूप ध्याता है । आत्मा से भिन्न परद्रव्यों का चिन्तवन तो सविकल्पध्यान है, वह ध्यान मोक्ष का कारण नहीं होता है । मोक्ष के कारणरूप ऐसे परमार्थ ध्यान में तो अपना शुद्ध आत्मा ही ध्येयरूप है । उसमें दूसरे पर लक्ष्य नहीं होता है, लक्ष्य और ध्येय दोनों अभेद होते हैं । इसका नाम ध्यान है । वह राग से शून्य है और अतीन्द्रिय ज्ञान से भरपूर है। इस ज्ञान में धर्मी को परलक्ष्य तो नहीं, और अपने में भी ‘खण्ड ज्ञानरूप मैं हूँ' ऐसे पर्यायभेद को वह नहीं | - ध्याता है – भेद के सन्मुख नहीं देखता है; अभेद आत्मा को भाता है । भाता है, अर्थात् ध्याता है; ध्याता है, अर्थात् चूसता है; चूसता है, अर्थात् अनुभवरस का स्वाद लेता है । इस प्रकार धर्मी अपने परमार्थतत्त्व को भा कर- ध्याकर पर्याय में पुष्ट होता है और केवलज्ञान प्रगट करके परमात्मा होता है । इस प्रकार सभी जीवों को अपने. परमात्मस्वभाव को ध्याना चाहिए - यह भावार्थ है । 247 यह मोक्ष के कारणरूप जो भावना है, वह एकदेश शुद्धनय का विषय है, उसमें निर्विकार स्वसंवेदन लक्षणरूप भावश्रुत है । आत्मा की एकदेश शुद्धतारूप यह भावना, मोक्षमार्ग में होती है; पूर्ण शुद्धतारूप मोक्षदशा होने पर भावनादशा नहीं रहती है, वहाँ तो भावना का फल प्रगट हुआ है । मोक्ष के कारणरूप ऐसी इस भावना में धर्मी क्या भाता है ? ' जो सकल निरावरण अखण्ड एक प्रत्यक्ष प्रतिभासमय अविनश्वर शुद्ध पारिणामिक- परमभाव - लक्षण
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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