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________________ 248 ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा -निज-परमात्मद्रव्य वही मैं हूँ' - ऐसा ज्ञानी भावश्रुत द्वारा भाता है परन्तु खण्ड ज्ञानरूप मैं हूँ – ऐसा ज्ञानी नहीं भाता है। इस प्रकार शुद्धात्मा की भावनारूप परिणमित होना, वह इस तात्पर्यवृत्ति का तात्पर्य है और यह भावना भवनाशिनी है। ___-- सकल निरावरण, अर्थात् जिसमें बिलकुल आवरण नहीं है। . - अखण्ड - जिसमें खण्ड नहीं है, भेद नहीं है। - एक – जिसमें पर्याय का भेद नहीं है, ' – प्रत्यक्ष प्रतिभासमय -- जिसका नाश नहीं है। पर्याय नाशवान है। - शुद्ध - जिसमें किसी प्रकार की अशुद्धता नहीं है। ___ - पारिणामिकपरमभाव लक्षण – जिसमें किसी की अपेक्षा नहीं है; बन्ध-मोक्ष की भी अपेक्षा जिसे नहीं है - ऐसा निरपेक्ष परमभाव सदा ध्रुवरूप / एकरूप रहनेवाला पारिणामिक -- स्वभाव। - निज परमात्मद्रव्य - कोई बाहर का दूसरा परमात्मा नहीं परन्तु अपना ही परमस्वभावी परमात्मा, वह धर्मी का ध्येय है। देखो तो सही! कितने विशेषणों से ध्येयरूप आत्मा की पहचान करायी है ! ऐसा ही मैं हूँ – ऐसे स्वयं अपने निज परमात्मा को ध्याने से परमात्मदशा प्रगट होती है, दूसरे भिन्न परमात्मा को ध्याने से शुभराग है, उसके द्वारा परमात्मा नहीं हुआ जाता; इस प्रकार निज परमात्मा का स्वरूप जानकर प्रत्येक जीव को उसकी भावना करनेयोग्य है, उसकी भावना द्वारा ही धर्म और मुक्ति होती है।
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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