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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
-निज-परमात्मद्रव्य वही मैं हूँ' - ऐसा ज्ञानी भावश्रुत द्वारा भाता है परन्तु खण्ड ज्ञानरूप मैं हूँ – ऐसा ज्ञानी नहीं भाता है। इस प्रकार शुद्धात्मा की भावनारूप परिणमित होना, वह इस तात्पर्यवृत्ति का तात्पर्य है और यह भावना भवनाशिनी है। ___-- सकल निरावरण, अर्थात् जिसमें बिलकुल आवरण नहीं है। .
- अखण्ड - जिसमें खण्ड नहीं है, भेद नहीं है। - एक – जिसमें पर्याय का भेद नहीं है, ' – प्रत्यक्ष प्रतिभासमय -- जिसका नाश नहीं है। पर्याय नाशवान है।
- शुद्ध - जिसमें किसी प्रकार की अशुद्धता नहीं है। ___ - पारिणामिकपरमभाव लक्षण – जिसमें किसी की अपेक्षा नहीं है; बन्ध-मोक्ष की भी अपेक्षा जिसे नहीं है - ऐसा निरपेक्ष परमभाव सदा ध्रुवरूप / एकरूप रहनेवाला पारिणामिक -- स्वभाव।
- निज परमात्मद्रव्य - कोई बाहर का दूसरा परमात्मा नहीं परन्तु अपना ही परमस्वभावी परमात्मा, वह धर्मी का ध्येय है।
देखो तो सही! कितने विशेषणों से ध्येयरूप आत्मा की पहचान करायी है ! ऐसा ही मैं हूँ – ऐसे स्वयं अपने निज परमात्मा को ध्याने से परमात्मदशा प्रगट होती है, दूसरे भिन्न परमात्मा को ध्याने से शुभराग है, उसके द्वारा परमात्मा नहीं हुआ जाता; इस प्रकार निज परमात्मा का स्वरूप जानकर प्रत्येक जीव को उसकी भावना करनेयोग्य है, उसकी भावना द्वारा ही धर्म और मुक्ति होती है।