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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
भी ध्यान नहीं करता परन्तु ध्रुवस्वभावी परिपूर्ण वस्तु को ध्यान में ध्याता है । उसके ध्येय में निर्मलपर्याय प्रगट हुई, उसे एकदेश व्यक्ति कहते हैं और केवलज्ञान, वह पूर्ण व्यक्तरूप है । व्यक्तपर्याय की अपेक्षा से केवलज्ञान पूर्ण है परन्तु पूर्ण सम्पूर्ण वस्तु की अपेक्षा से तो केवलज्ञान पर्याय भी उसका एक अंश है; इसलिए ध्यानपर्याय का ध्येय वह नहीं है; ध्यान का ध्येय तो अखण्डरूप निज परमात्मद्रव्य है । ध्येय पारिणामिकभावरूप है और ध्यानदशा T औपशमिक आदि तीन भावोंरूप है। रागादिरूप उदयभाव तो ध्येय में अथवा ध्यान में एक में भी नहीं आते।
वीतरागी ध्रुवस्वभाव में अन्तर्मुख होकर उसे ध्येय करने से अर्थात् अभेद अनुभव करने से सम्यग्दर्शन से लेकर सिद्धपद तक की निर्मलपर्यायें प्रगट हो जाती हैं । पर्याय का या गुण का भेद डालकर ध्येय करने जाये तो राग होता है, चंचलता होती है, चित्त स्थिर नहीं होता। ध्यानदशा तो अनाकुल शान्त वीतरागभावरूप है । अन्तर में सत् वस्तु को ध्येय बनाने की विधि सन्तों ने बतलायी है। मोक्षमार्ग इस प्रकार बतलाया है - कि स्वभाव के ध्यान से जो निर्मलदशा हुई, वह जाननेयोग्य है परन्तु वह ध्येय करने योग्य नहीं है । जैसे व्यवहार उस काल में जाना हुआ प्रयोजनवान है, परन्तु वह आश्रय करने योग्य नहीं है । अन्तर में अभेदस्वभाव को ध्याना, भाना, अनुभव करना ही मोक्षमार्ग है।
पर्याय- अपेक्षा से केवलज्ञानादि को 'परमभाव' कहा जाता है; मोक्षदशा को परमपद कहते हैं परन्तु द्रव्यस्वभाव की अपेक्षा से तो शुद्ध पारिणामिकस्वभाव ही परमभाव है - जो त्रिकाल एकरूप है ऐसे परमभावरूप निज परमात्मद्रव्य मैं ही हूँ - ऐसा अन्तर्मुख