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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
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साधक ज्ञानी को होती है; अज्ञानी तो अपने में स्थित भगवान आत्मा के निज निधान को भूलकर बाहर की लक्ष्मी इत्यादि की भावना करता है। अरे! तीन लोक का नाथ भिखारी होकर लोक में भ्रमता है । यह क्या उसे शोभा देता है ? आनन्दकन्द सुख भण्डार आत्मा है, उसकी श्रद्धा-ज्ञान जिसे हो, वह सुख के लिए बाहर में झपट्टे नहीं मारता है; उसे आत्मा के आनन्द के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं आनन्द भासित ही नहीं होता। अपने स्वभाव में जैसा आनन्द धर्मी ने अनुभव किया है, उस जाति का आनन्द अन्यत्र कहीं शरीर में-लक्ष्मी में-स्त्री में स्वर्ग में या पुण्य-पाप के भाव में कहीं नहीं है। आत्मा के ऐसे आनन्द का अनुभव होता है, तब जीव को धर्मी कहा जाता है। इसके अतिरिक्त बाहर की क्रिया से धर्मी नहीं कहलाता है। यह सब समझने में अज्ञानी को मेहनत और बोझ लगता है.... परन्तु भाई! यह तो वस्तु सहज है और आनन्ददायक है; आत्मा को साधने में – ध्याने में बोझ नहीं परन्तु आनन्द है। उसमें ही सच्ची विश्रान्ति है।
अरे भगवान! तुझे निज घर का पता नहीं पड़े – यह कैसी भूल? आत्मा में साध्य और साधन क्या, उसके भान बिना राग से धर्म साधना चाहे या आँख बन्द करके बैठे, इससे कहीं धर्म नहीं होता। अन्तर में पूर्णानन्द से परिपूर्ण स्वसत्ता कैसी है? – उसका स्वीकार किये बिना और उसमें झुके बिना ज्ञानचक्षु नहीं खुलते हैं। जैसा स्वभाव है, वैसा जानकर, उस स्वभावसन्मुख ढलना-झुकना । -परिणमित होना, वह धर्म है। धर्मी जीव, मोक्ष के लिए किसी परवस्तु / निमित्त का ध्यान नहीं करता, पाप का या पुण्य का ध्यान नहीं करता, भेद का-व्यवहार का या निर्मलपर्याय प्रगट हुई, उसका