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________________ 244 ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा अखण्ड आत्मा का अनुभव करता है, तब उसमें द्रव्य-पर्याय के द्वैत का विकल्प नहीं रहता है। ऐसे अनुभव को अद्वैत अनुभव कहते हैं, क्योंकि ऐसे अनुभव में शुद्धात्मा के अतिरिक्त दूसरा द्वैत प्रतिभासित नहीं होता। ध्यान के समय ध्याता पुरुष वया ध्याता है ? यह स्वसंवेदन प्रत्यक्ष अखण्ड निज परमात्मद्रव्य मैं हूँ' – ऐसा वह ध्याता है। जिसमें गुण-गुणी का भेद नहीं है; यह द्रव्य और यह पर्याय - ऐसा भेद जिसमें नहीं है, ऐसा निर्विकल्प एक अखण्ड आत्मा को धर्मी भाता है। भाता है, अर्थात् अनुभव करता है। अनुभव में आत्मा प्रत्यक्ष प्रतिभासरूप होता है। ऐसे निज परमात्मा में सन्मुख होकर पर्याय उसे ध्याती है। आत्मा की अनन्त शक्तियों में एक प्रकाश शक्ति ऐसी है कि आत्मा स्वयं अपने को प्रत्यक्ष होवे। धर्मी उसे ज्ञान में प्रत्यक्ष करते हैं। धर्मी का ध्येयरूप आत्मा परम पारिणामिकभाव लक्षणवाला है, अविनश्वर है। उस ध्येय में लीन होकर पर्याय उसे ध्याती है। ध्येयरूप ऐसे आत्मा को परमात्मा कहा है। वह कहाँ रहता होगा? क्या कहीं दूर-दूर रहता होगा? नहीं, वह तो स्वयं ही है; निज परमात्मद्रव्य मैं स्वयं ही हूँ - ऐसा धर्मी अपने को अनुभव करता है। ऐसे अनुभव को परमात्मभावना कहते हैं । प्रत्येक जीव को ऐसी भावना करने योग्य है। चिदानन्दस्वभाव के अनुभवरूप भावना है, वह विकल्परूप नहीं परन्तु स्वसंवेदनरूप है; वह क्षायोपशमिक ज्ञानरूप है। (ज्ञान की अपेक्षा से उसमें क्षायोपशमिकभाव है, श्रद्धा की अपेक्षा से किसी को क्षायिकभाव भी होता है, औपशमिक भी होता है अथवा क्षायोपशमिक भी होता है) तीन भावरूप ऐसी भावनापरिणति,
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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