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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
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लक्ष्य में लेने योग्य है । लक्ष्य पर्याय द्वारा होता है परन्तु पर्याय पर लक्ष्य नहीं है अखण्ड द्रव्य पर लक्ष्य है। अहो, जिनमार्ग के स्याद्वाद की यह अद्भुत लीला है। अनेकान्तमार्ग अमृतरूप है। भगवान परमात्मा का ऐसा स्वरूप है, वह भगवान ने जाना और वाणी में कहा है; कहीं नया बनाया नहीं है। ___भाई! तेरा द्रव्य और तेरी पर्याय दोनों स्वयं में है। उसमें झगड़ा
और वाद-विवाद किसके साथ? तेरी वस्तु तुझमें पड़ी है, उसे देख... उसका अनुभव कर... दुनिया क्या करती है और क्या कहती है? – उसका तुझे प्रयोजन नहीं है। दुनिया उसके घर रही.... उसके स्थान में वह और तेरे स्थान में तू। तू तेरा सम्हाल ! अहो! आचार्यदेव ने करुणा से कैसा स्पष्टीकरण किया है ! बाहर के दूसरे विकल्पों की बात तो दूर रहो.... और अपने में बन्ध-मोक्ष के विकल्प भी छोड़कर अन्तर्मुख निर्विकल्प ज्ञान द्वारा अपनी अखण्ड चेतनवस्तु को जानकर, उसमें स्थिर होना, वह मोक्षमार्ग है। अभेदस्वभाव के सन्मुख हुई अपनी स्वतन्त्र पर्याय से ऐसा मोक्षमार्ग सधता है, उसे 'परम अद्वैत' भी कहा जाता है। - अनुभूति में द्रव्य-पर्याय का अद्वैतपना, वह मोक्षमार्ग है; द्वैत का भेद उसमें नहीं रहता है। त्रिकाली वस्तु शुद्ध है, वैसी शुद्धपर्याय प्रगट हुई, उसे परम अद्वैत कहा है। विकल्प में भंग पड़ता था, वह मिटकर अभेद हो गया। निर्विकारी एकदेश शुद्धस्वरूप वीतरागी भावना, वह परम अद्वैत मोक्षमार्ग है – ऐसा वीतरागमार्ग है। जड़चेतन सब होकर एक - ऐसा कहीं अद्वैत का अर्थ नहीं है। विकार के साथ भी जहाँ एकता नहीं है, वहाँ जड़ की तो क्या बात ! स्वसंवेदन प्रत्यक्ष ज्ञान स्वयं का है, वह अन्तर में अभेद होकर