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________________ 242 ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा आत्मसन्मुख परिणाम, निर्विकल्प स्वसंवेदन इत्यादि बहुत विशेषणों से मोक्षमार्ग का स्वरूप समझाया है। ऐसे मोक्षमार्ग की चौथे गुणस्थान से शुरुआत होती है। अहो! चौथे गुणस्थान में भी धर्मी को आत्मा की जितनी प्रभुता प्रगट हुई है, वह तो राग से भिन्न ही है। साथ में राग रहा है; इसलिए कहीं प्रगट हुई शुद्धपर्याय स्वयं रागरूप नहीं हो जाती है। जगत् में तो ज्ञेयरूप से सम्पूर्ण दुनिया है, छहों द्रव्य है, इसलिए क्या शुद्धपर्याय उन छह द्रव्यसहित है ? नहीं, उनसे भिन्न है। उसी प्रकार राग होने पर भी धर्मी को वह ज्ञान के ज्ञेयरूप ही है, ज्ञान उससे भिन्न है। शुद्ध ज्ञान के साथ राग एकमेक नहीं है। चैतन्यबिम्ब आत्मा एकरूप है उसरूप ही धर्मी अपने को अनुभव करता है। चौथे गुणस्थान में भी जितनी शुद्धता है, उसमें राग नहीं है; वह तो रागरहित ही है। चौथे गुणस्थान से शुरु हुआ शुद्धता का अंश बढ़बढ़कर सिद्धदशा में पूर्ण शुद्धता हुई, उसमें कहीं राग का स्पर्श नहीं है – ऐसा वीतराग का मार्ग है। ___सीमन्धर भगवान ने समवसरण में ऐसा आत्मस्वभाव बतलाया और रागरहित मोक्षमार्ग का उपदेश किया। यह बात भव्य श्रोताजनों के कान में पड़ी और उन श्रोताओं ने वैसा अनुभव प्रगट किया। आहा...हा...! समवसरण की दिव्य शोभा के बीच भगवान ऐसा कहते थे.... भगवान, लोकस्वभाव का वर्णन करते थे और रागरहित मार्ग दिखलाते थे, ऐसा श्रोताओं ने सुना; लोकस्वभाव के श्रोताओं को भगवान तीर्थङ्करदेव ने ऐसा कहा.... ऐसा कुन्दकुन्दाचार्यदेव ने पञ्चास्तिकाय गाथा ९५ में कहा है – लोगसहावं सुणंताणं हे जीव! मनुष्य का ऐसा अवतार मिला, उसमें ऐसी चीज
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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