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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
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आयी है, उसमें अन्त में धर्मात्मा जीव अपने आत्मा को कैसा भाते हैं? यह कहते हैं। ___शुद्धात्मा की भावनारूप परिणति, वह मोक्षमार्ग है – ऐसा कहा। वह भावना कैसी है ? विवक्षित एकदेश शुद्धनयाश्रित यह भावना, निर्विकल्प स्वसंवेदन लक्षण क्षायोपशमिक ज्ञानरूप होने से एकदेश व्यक्तिरूप है परन्तु ध्याता पुरुष ऐसा भाता है कि सम्पूर्ण निरावरण अखण्ड एक प्रत्यक्ष प्रतिभासमय अविनश्वर शुद्ध पारिणामिकपरमभाव लक्षण निज परमात्मद्रव्य वही मैं हूँ परन्तु ऐसा नहीं भाता कि खण्डज्ञानरूप मैं हूँ।
देखो, प्रथम तो मोक्ष के कारणरूप जो यह भावना है, वह ज्ञानरूप है, रागरूप नहीं । यद्यपि यह भावना स्वयं पर्याय है परन्तु इस भावना का विषय अखण्ड आत्मा है। ज्ञानपर्याय स्वयं अन्तर्मुख होकर शुद्धस्वभाव में अभेद हुई, इसलिए वह खण्ड-खण्डरूप नहीं रही, वह अभेदस्वभाव की भावना में एकाग्र हुई। शुद्ध स्वरूप ऐसी भावना, पर्याय है; त्रिकाली द्रव्य उसका विषय है – ऐसी एकदेश शुद्धतारूप जो शुद्धपर्याय प्रगट हुई, उसे भेद डालकर लक्ष्य में लें तो वह एकदेश शुद्धनय का विषय है। उसमें राग नहीं है। यद्यपि पर्याय के भेद, वह व्यवहारनय का विषय है परन्तु उसमें शुद्धता का अंश है; इसलिए उसे एकदेश शुद्धनय कहा है और भावना को एकदेश शुद्धनयाश्रित कहा है । यद्यपि उसका आश्रय । ध्येय तो अन्तर में ध्रुव अभेदस्वभाव है, परन्तु उसे विषय करनेवाला एकदेश शुद्धनय है; इसलिए उसे एकदेश शुद्धनयाश्रित कही है। एकदेश शुद्धनयाश्रित भावना, औपशमिक आदि तीन भाव,