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________________ ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा है और पलटने के समय ही अखण्ड स्वभाव से भरपूर ध्रुवत्व भी प्रत्येक समय ऐसा का ऐसा वर्त रहा है । उस स्वभाव को भूलकर, अपने को रागादि जितना ही मानकर, अज्ञानी अशुद्धरूप से परिणमित होता है; अशुद्धता, वह दोष है। पूरी शक्ति एक अवस्था जितनी नहीं है, वह तो ध्रुवसामर्थ्य से भरपूर है । ऐसे अपने स्वभाव को जाने बिना शास्त्रों का पठन करे तो भी अज्ञान नहीं मिटता है, सर्वज्ञदेव को परिपूर्ण आनन्द और ज्ञान प्रगट हुए है; तीन काल-तीन लोक जाना है; जैसा वस्तुस्वरूप जाना वैसा वाणी में आया है । उस स्वरूप को झेलकर आचार्यदेव ने जगत् को समझाया है । उस बात को समझकर अनुभव करने से ही जगत् का कल्याण है । 235 पहले अज्ञानदशा में राग-द्वेष में एकाग्रतारूप आर्त- रौद्रध्यान था; अब आत्मा का भान करके चैतन्यस्वभाव में एकग्रे होने पर धर्म - शुक्लध्यान हुए; सिद्धदशा होने पर वह ध्यान भी नहीं रहता है; इस प्रकार ध्यानदशा विनश्वर है। जितना ध्येय का काल है, उतना ध्यानदशा का काल नहीं है। ध्येयरूप ध्रुवस्वभाव कायम रहनेवाला है; पर्याय कायम रहनेवाली नहीं है । पर्याय कायम रहनेवाली होवे तो अपूर्ण में से पूर्ण दशा नहीं होगी। पर्याय तो परिणमनशील है। ध्रुवता और परिणमन - ऐसा अपना सूक्ष्मस्वभाव लक्ष्य में लेने से सम्यग्ज्ञान होता है । ध्रुवस्वभाव और पर्याय, दोनों का स्वरूप पहचाननेवाले की पर्याय अन्तर में ध्रुवस्वभाव की तरफ झुक ही जाती है और उसके ध्यान में अतीन्द्रिय उपशान्तरस का समुद्र उल्लसित होता है, मोक्ष का सुख अनुभव में आता है। जो ऐसे स्वभाव में उपयोग का जुड़ान करता है, वही सच्चा योगी
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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