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________________ 236 - ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा और साधक है। बाकी सब तो हठ योग है। शरीर के प्राणायाम इत्यादि आत्मा की चीज नहीं है। राग में धर्म मानकर उसमें उपयोग एकाग्र करे; वह अधर्म है। देह का और राग का लक्ष्य छोड़कर परम सत् चैतन्य महाप्रभु में लक्ष्य को जोड़े और उसे ध्यावे, वह परम योगी है। जुड़ता है, वह अवस्था है परन्तु वह जुड़ान है किसमें? ध्रुव में; इस प्रकार ध्रुवस्वभाव के साथ पर्याय का जुड़ान / अभेदता करना, वह योग है। ऐसी योग साधना द्वारा मोक्ष सधता है। द्रव्य है, पर्याय है - ऐसे सत् स्वभाव का महान अस्तित्व स्वीकार किये बिना सच्चा योग या एकाग्रता नहीं होती है। स्वभाव का अस्तित्व कब स्वीकार किया? जब पर्याय उसमें एकाग्र हुई तब । अन्तर का मार्ग - ऐसा अलौकिक है। भाई ! तेरे अन्तर में चैतन्य महासत्ता है, उसमें अनन्त स्वभाव ध्रुवरूप से भरे हुए हैं, उसमें तेरी वर्तमान दशा के उपयोग को जोड़ - ऐसा जुड़ान, ऐसी एकाग्रता ही धर्म का योग है, वह निविकार दशा है, उसमें आनन्द है और मोक्षमार्ग है। संसार में जीव एक गति में से मरकर दूसरी गति में उत्पन्न होता है। इस प्रकार गति का भव बदला करता है, और उसके कारणरूप शुभाशुभभाव भी बदला करते हैं, वे कोई कायम नहीं रहते परन्तु ध्रुवस्वभावरूप से आत्मा कायम रहता है; वह उपजता -विनशता नहीं है। ध्रुव जन्मता नहीं, ध्रुव मरता नहीं – ऐसे आत्मस्वभाव को, हे जीव! तू जान । बन्ध-मोक्ष पर्याय में होते हैं, द्रव्य में नहीं होते हैं; इसलिए ध्रुवद्रव्य, बन्ध-मोक्ष को नहीं करता है। पर्याय, बन्ध-मोक्ष को करती है। इस प्रकार पर्याय का कर्ता
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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