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________________ 230 ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा मुक्ति होना नहीं है। ऐसे आत्मस्वभाव को पहिचाननेवाले को ही मोक्ष का सच्चा प्रयत्न प्रगट होता है। वीतराग निर्विकल्प समाधि में अपना ऐसा सिद्धसमान आत्मा ही उपादेय है। उसे उपादेय करके ध्यान से सिद्धपद प्रगट होता है । देहादि के संयोगरूप जीवन और उनके वियोगरूप मरण तो आत्मा को नहीं है; पर्याय में जो उत्पत्ति - विनाश है, वह भी ध्रुवस्वभाव को नहीं है। दस प्राण से जीवे, वह 'सच्चा जीव' नहीं है; सच्चा जीव तो त्रिकाल चैतन्यप्राणरूप जीवित है । वह जीव 'परिणामस्वभावी' है, इसलिए वह परिणामरूप होता अवश्य है.... परन्तु परिणाम, पर्यायनय का विषय है; द्रव्यार्थिकनय तो एकरूप द्रव्य को देखता है, उसमें बन्ध-मोक्ष परिणाम नहीं आते हैं; उसमें तो अकेला पारिणामिक परमभाव आता है । वह पारिणामिक भाव, बन्ध-मोक्षपर्याय के साथ सर्वथा तन्मय नहीं है क्योंकि वह तो द्रव्यरूप है । द्रव्य का द्रव्यसत्तारूप सदा होना इसका नाम 'द्रव्य का आत्मलाभ' है और ऐसे द्रव्यात्मलाभ हेतुक पारिणामिकभाव है । `आत्मा का स्वभाव सूक्ष्म है, अतीन्द्रिय है, इसलिए आँख से तो नहीं दिखता, विकल्प से तो ज्ञात नहीं होता; अन्तर्मुख जिस पर्याय से ज्ञात होता है, वह पर्याय उसका एक अंश है और अखण्ड द्रव्य त्रिकाल पूर्ण शुद्ध है । उस शुद्धस्वरूप के सन्मुख हुई परिणति, विकल्परूप नहीं होती। अब, जो निर्मलपरिणति हुई, उसकी कर्ता पर्याय है, द्रव्य नहीं । परिणाम और परिणामी को अभेदरूप से कहने पर, परिणमे वह कर्ता - ऐसा कहा जाता है परन्तु द्रव्य स्वयं पर्यायरूप नहीं हो जाता है । द्रव्य में तो बन्ध - मोक्ष से निरपेक्षपना
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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