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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
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परमात्मप्रकाश, गाथा - ६८ में श्री योगीन्द्रदेव ने कहा है कि - ण वि उप्पज्जइ ण वि मरइ बंधु ण मोक्खु करेइ । जिउ परमर्थे जोइया जिणवरु एउँ भणेइ ॥ ६८ ॥
परमार्थ से, अर्थात् शुद्धनिश्चयनय से विचार करने पर जीव न तो उत्पन्न होता है या न तो मरता है; तथा बन्ध-मोक्ष को भी नहीं करता है - ऐसा जिनवर देव कहते हैं ।
यद्यपि शुद्धात्मानुभूति के अभाव में अज्ञानी जीव, शुभाशुभ का कर्ता होता है; इसलिए बन्ध का कर्ता होता है तथा शुद्धात्म - अनुभूति द्वारा ज्ञानी जीव, मोक्ष का कर्ता होता है; इस प्रकार पर्याय में जीव, बन्ध-मोक्ष को करता है परन्तु परमभावग्राहक ऐसे शुद्धनय से देखने पर आत्मा एकरूप पारिणामिकस्वभाव है, वह बन्ध-मोक्ष को नहीं करता। जो बँधा हुआ हो, वह छूटता है परन्तु जिसे कभी बन्धन ही नहीं, उसे छूटना भी कहाँ है ? पर्याय में बन्धन है और पर्याय में मुक्ति होती है; उस मुक्ति का उपाय भी पर्याय में है ।
जिस प्रकार एक मनुष्य साँकल से बँधा हुआ हो और फिर छूटे; तथा दूसरा एक मनुष्य कभी बँधा नहीं हो, पहले से ही छूटा हुआ हो; वहाँ पहले पुरुष को यह कहना कि 'तुम छूटे' - यह तो ठीक है परन्तु जिसे कभी बन्धन था ही नहीं - ऐसे दूसरे पुरुष से यह कहना कि ' भाई ! तुम जेल से छूटे - यह अच्छा हुआ' - तो यह उचित नहीं है। भाई ! मैं जेल में था ही नहीं, फिर छूटने की बात कैसी ? उसी प्रकार जीव को पर्याय में बन्धन है और पर्याय में मुक्ति है, परन्तु शुद्धद्रव्यरूप पारिणामिकभाव में तो बन्धन या