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________________ 228 ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा राग तो उदयभाव है - कर्म की तरफ का भाव है; वह कहीं स्वभाव की तरफ का भाव नहीं है, इसलिए वह मोक्षमार्ग नहीं है। ध्यानपर्याय, रागरहित निर्मलभावरूप है और वह मोक्ष का कारण है परन्तु सिद्ध को ध्यानपर्याय का अभाव है। इस प्रकार ध्यानपर्याय, विनश्वर है और ध्येयरूप परमस्वभाव, अविनश्वर है। तेरी वस्तु में ध्रुवता क्या? और पलटना क्या? – इन दोनों को पहचान; और ध्रुवस्वभाव में उपयोग को स्थिर करके उसे ध्या! आत्मा के भाव आत्मा में हैं, पर के कारण नहीं। उसमें बन्ध -मोक्ष के कारण से रहित होने से, पहले जिसे निष्क्रिय कहा था, उस पारिणामिकभाव को यहाँ ध्येयरूप कहा है, वह ध्यानरूप नहीं है; ध्यानपर्याय (तो) नाश को प्राप्त होती है परन्तु ध्येय, नष्ट नहीं होता; इसलिए ध्येय और ध्यान सर्वथा एक नहीं है, कथंचित् भिन्न है। ऐसा शुद्धात्मपरिणतिरूप ध्यान, वह मोक्षमार्ग है। भले ही शुक्लध्यान होवे तो भी वह उत्पन्नध्वंसी है परन्तु उस ध्यानपर्याय का नाश होने से कहीं द्रव्य का नाश नहीं होता है। इस प्रकार ध्यानपर्याय, विशेष और ध्येयरूप द्रव्य, सामान्य है - ऐसे सामान्य -विशेषरूप वस्तु है। __ वस्तु अपने सामान्य-विशेष से बाहर पर में तो कुछ करती या भोगती नहीं है। जैन में परद्रव्य का कर्तृत्व नहीं है, अर्थात् भगवान द्वारा देखे हुए वस्तुस्वरूप में वह (पर का कर्तृत्व) नहीं है। एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कुछ करे या पुण्य से धर्म हो – यह बात जैनशासन की मर्यादा के बाहर है। द्रव्य-पर्यायस्वरूप वस्तु को यदि द्रव्यरूप से देखो तो वह उत्पन्न नहीं होती, विनष्ट नहीं होती और पर्यायरूप से देखो तो उसमें उपजना-विनशना है।
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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