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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
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है, अनादि-अनन्त एकरूपपना है – ऐसे स्वभाव के सन्मुख होने पर मोक्षमार्ग होता है।
अहा! जहाँ द्रव्य और पर्याय का ऐसा स्वरूप अपने में है, वहाँ जगत् में दूसरे के सामने क्या देखना? दूसरे की क्या चिन्ता? ऐसे आत्मस्वभाव को पर का कर्ता कहना, या शब्दरूप परिणमित होनेवाला कहना तो विपरीतता है। राग का कर्तृत्व अज्ञान में है, ज्ञान में नहीं। ज्ञानी को मोक्षमार्गरूप निर्मलपर्याय का कर्तृत्व है परन्तु वह पर्याय, व्यवहारनय का विषय है; शुद्धनय का नहीं। शुद्धनय तो आत्मा को परमस्वभावरूप ही देखता है।
परमस्वभावी आत्मा अमृतरस का कुण्ड है; उस अमृत के अनुभव द्वारा अमर होने की यह बात है। अमर ऐसा सिद्धपद प्राप्त करने के लिए अखण्ड चैतन्यस्वभाव को ध्यान में ध्येयरूप बनाना। वह ध्येय सदा आनन्द से भरपूर है, उसे ध्याने से आनन्द का वेदन होता है - ऐसे स्व ध्येय को भूले हुए जीव, विकार को ही अनुभव करते हुए दु:खी होते हैं; उस दुःख से मुक्त होने के लिए यह उपदेश है । दुःख से छूटकर तुझे शान्ति प्रगट करनी हो तो जिसमें कभी दुःख का प्रवेश नहीं - ऐसे तेरे ध्रुवधाम को ध्येय बनाकर ध्यान में ध्या। जीव अपने स्वभाव में से संसरण करके परभाव में आया, वह संसार है और परभावों से छूटकर निजभाव में लीन हुआ, वह मुक्ति है – यह दोनों अवस्था है। त्रिकालस्वभावी द्रव्य पारिणामिकभावरूप होने से उसे बन्ध-मुक्ति नहीं है – ऐसे ध्रुवस्वभाव के ध्यान द्वारा वीतरागता की उत्पत्ति और राग का अभाव होता है, वह मोक्ष की क्रिया है, उसमें संवर-निर्जरा आ जाते हैं।