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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
लक्ष्य छुड़ाते हैं, वहाँ परद्रव्य की तो बात ही कहाँ रही? ऐसे अपने स्वभाव को जानकर स्वसन्मुख हो। भाई! सुख का भण्डार तो उसमें है।
- भाई! यह वस्तु तो गम्भीर है। वाणी में तो कितना आवे? अमुक संकेत आते हैं, वरना तो श्रोता को स्वयं अन्दर की गम्भीरता भासित हो और अन्तर के विचार में वस्तु को पकड़ ले, तब उसका भाव उल्लसित होता है, अपूर्व भावभासन होता है और अन्तर में उतरकर अनुभव कर लेता है। ऐसा अनुभव करनेवाले जीव अभी हैं और ऐसा अनुभव हो सकता है, यह स्वानुभव में लेने योग्य बात है।
कहाँ जाना और कहाँ स्थिर होना? तो कहते हैं कि कहीं नहीं जाना, तू अपने में ही रह; तेरे ध्रुवस्वभाव को ध्येय बनाने से तुझे सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप मोक्ष-कारण प्रगट होगा, तेरा सुख तुझे अनुभव में आयेगा; सुख के लिए तुझे कहीं अन्यत्र नजर नहीं डालना पड़ेगी। तेरी वस्तु, द्रव्य और पर्याय – ऐसे दो भाववाली है। सामान्यरूप ध्रुव, वह द्रव्य है और विशेषरूप क्रिया, वह पर्याय है। उसमें ध्रुव का आश्रय करके होनेवाली जो क्रिया, वह मोक्ष की क्रिया है। 'पूर्णानन्दी चैतन्यस्वभावी आत्मा मैं हूँ' - ऐसी स्वानुभूतिरूप भावना, वह क्रिया है, और ध्रुव तो अक्रिय है - ऐसा द्रव्य-पर्यायरूप वस्तुस्वरूप है; इस प्रकार सत् वस्तु को न पहचाने और दूसरे प्रकार से गड़बड़ करके धर्म करना चाहे तो वह जीव सुलटे मार्ग पर नहीं परन्तु असत् मार्ग में है, उसे धर्म नहीं होता। धर्म के लिए तो अन्तर्मुख होकर स्वयं में ही स्थिर होना है, अन्यत्र कहीं जाना नहीं है।