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________________ ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा 223 जो धर्म करना चाहता है, वह जीव 'कुछ करना चाहता है' - उसका अर्थ यह हुआ कि उसकी प्रवर्तमान वर्तमान दशा में उसे सन्तोष नहीं है; इसलिए उसे बदलकर, उससे अलग प्रकार की नयी दशा करना चाहता है; उसमें स्वयं कायम रहना चाहता है, अर्थात् बदलना और कायम रहना दोनों धर्म इसमें आ गये हैं.... तो स्वयं में कायम, वह क्या? और बदले, वह क्या? इस प्रकार अपने द्रव्य-पर्याय को पहचानना चाहिए, तभी पर्याय में सम्यक् परिवर्तन / परिणमन होकर मोक्षमार्ग प्रगट होता है। - अपने गुण-पर्यायरूप अस्तित्व में वर्तते चेतनस्वरूप आत्मा में जड़ की क्रिया कभी नहीं है। उसके ज्ञान में जड़ की अवस्था ज्ञेयरूप ज्ञात अवश्य होती है परन्तु वह जड़ की क्रिया, जड़रूप से सत् और ज्ञान, ज्ञानरूप से सत् है; इस प्रकार जड़ से तो भिन्नता है। । अब, जो रागादिभाव होते हैं, वे आत्मा की पर्याय में हैं परन्तु ज्ञानस्वरूप से उनकी जाति अलग है। ज्ञानस्वरूप के आश्रय से : उनकी उत्पत्ति नहीं होती है, अर्थात् ज्ञानस्वरूप, उस राग से भी ! भिन्न है। अब ऐसा भेदज्ञान करके शुद्ध चैतन्यस्वरूप के सन्मुख परिणति होने पर सम्यक्त्वादि निर्मल पर्यायें प्रगट हुईं – वहाँ पर्याय नयी प्रगट होती है, सम्पूर्ण वस्तु नयी नहीं प्रगट होती। वस्तु का ध्रुव अंश तो पहले से शुद्ध था, पर्याय शुद्ध हुई, वह मोक्षमार्ग है। उसमें पर्याय नहीं थी और हुई, इसलिए इस अपेक्षा से वस्तु क्रियारूप है और ध्रुवरूप से द्रव्य तो कहीं नया नहीं होता है; इसलिए उसकी अपेक्षा से वस्तु अक्रिय है - ऐसे दोनों धर्म, वस्तु में एक साथ हैं।
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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