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ज्ञानचक्षु: भगवान आत्मा
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भगवान ने तप में क्या किया था? भाई ! तेरा तप या तेरा मोक्ष का साधन बाहर में नहीं है।
चिदानन्दस्वभाव के सन्मुख परिणति एकाग्र होती है, उसमें सम्यक् तप इत्यादि मोक्षमार्ग के सभी बोल समाहित हो जाते हैं। काँच खण्ड को कोई नीलम मान ले, इससे कहीं उसकी कीमत नीलम जितनी नहीं हो जाती; उसी प्रकार शुभविकल्प को-पुण्य को-बन्धभाव को कोई धर्म या मोक्षमार्ग मान ले, इससे कहीं मोक्षमार्ग उसके हाथ में नहीं आ जाता है। धर्म तो आत्मा का अपूर्व भाव है, एक समय भी धर्म का सेवन करे तो वह जीव मुक्त परमात्मा हुए बिना नहीं रहता है। दूज उगी तो बढ़कर पूर्णिमा होगी ही.... उसी प्रकार शुद्धस्वभाव के अवलम्बन से जिसे सम्यग्दर्शन
और सम्यग्ज्ञानरूप चेतन-दूज उगी, उसे अल्प काल में ही केवलज्ञानरूपी पूर्ण चन्द्रमा उगेगा ही - ऐसी पवित्र अरागीदशा, वह शुद्धभावना है और रागरहित है। वह चैतन्यस्वभाव का ही अवलम्बन करनेवाली है, वह धर्म और मोक्ष का कारण है।
ध्रुव चिदानन्द परम स्वभाव में दृष्टि करने से क्या होगा? परमात्मदशा प्रगट होगी। उस स्वभाव को नहीं देखनेवाले को रागादि विकार के कर्तृत्वरूप अज्ञानदशा ही रहेगी। सुलटी या उलटी चैतन्य की क्रीड़ा चैतन्य में है। जड़ वस्तुएँ, जड़रूप रही हैं, वे तेरी होकर नहीं रही, तुझमें नहीं आयी हैं। जगत् की चीजें जगत् में हैं, वे तुझमें नहीं हैं, तथापि मैं उन्हें रखता हूँ, मैं उनका कुछ करता हूँ, उनमें से मैं सुख प्राप्त करूँ - ऐसा मानता है, तो वह तो तेरी मूढ़ता है। यहाँ अपने में दो पहलू जानकर, शुद्धस्वभाव के सन्मुख झुकने की बात है। जहाँ अपनी पर्याय के भेदों का भी