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________________ 210 ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा - में रागादि की रुचि छोड़कर ज्ञानानन्दस्वरूप के सन्मुख होकर उसकी रुचि, श्रद्धा, स्वसंवेदन करने से निर्मलदशा हो, वह आत्मा की मुक्तदशारूप कार्य का कारण है। ध्रुव, कारण नहीं है क्योंकि ध्रुव में क्रिया नहीं है, पलटना नहीं है; पलटनेरूप क्रिया, पर्याय में है। पर्याय में विकार, वह संसार; उसका अभाव होकर पर्याय में शुद्धता का नाम मुक्ति; वह कहीं बाहर में नहीं और उसका कारण भी बाहर में नहीं है। एक आत्मवस्तु में यह सब समाहित होता है। ऐसी वस्तु का ज्ञान, वह सत् का ज्ञान है। सन्तों ने उसकी प्रसिद्धि की है। आत्मवस्तु नजर में आ सके ऐसी है परन्तु स्वयं अपने में नजर नहीं करता; बाहर में नजर करता है, फिर अन्दर की वस्तु कैसे दिखायी दे? अन्दर में नजर करे तो दिखे न? एक वस्तु हो एक जगह और ढूँढे दूसरी जगह तो कहाँ से मिलेगी? जहाँ हो, वहाँ ढूँढे तो मिले; उसी प्रकार आत्मा को आत्मा में ढूँढे तो मिले परन्तु देह की क्रिया में या राग में वह नहीं मिलता। प्रश्न – हम अन्दर आँख बन्द करके देखते हैं परन्तु आत्मा नहीं दिखता, अन्धकार दिखता है ? उत्तर - परन्तु भाई! बाहर की चक्षु बन्द करके अन्दर की ज्ञानचक्षु खोल, अर्थात् भावश्रुत चक्षु को अन्दर में झुका तो आत्मा दिखेगा। अन्धकार दिखता है' - तो उस अन्धकार को देखनेवाला कौन है ? अन्धकार का दृष्टा स्वयं अन्धकाररूप नहीं है। अन्धकार को देखनेवाला तो अन्धकाररहित जागृत चैतन्यसत्तारूप है। अन्धकार, अन्धकार को नहीं जानता; जाननेवाला, अन्धकार को जानता है कि यह अन्धकार है परन्तु 'मैं अन्धकार हूँ' - ऐसा नहीं
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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