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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
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सर्वज्ञदेव ने केवलज्ञान कला द्वारा तीन काल-तीन लोक को एक समय में जाना है और वाणी द्वारा वस्तुस्वरूप कहा गया है। उन्होंने शक्तिरूप से तो प्रत्येक जीव को मुक्तस्वरूप देखा है और पर्याय में मोक्ष होने के कारणरूप उपशमादि तीन भाव देखे हैं। उन भावों द्वारा व्यक्तिरूप मोक्ष नया होता है, शक्तिरूप मोक्ष त्रिकाल है।
पर्याय में मिथ्यात्व हो या सम्यक्त्व-हो; बन्धन हो या मुक्ति हो परन्तु द्रव्यस्वभाव की सामर्थ्य तो समस्त दशाओं के समय मुक्तस्वरूप ही है, उसे बन्धन नहीं है, आवरण नहीं है, अशुद्धता नहीं है, अपूर्णता नहीं है – ऐसे निज स्वभाव का, अर्थात् भूतार्थ स्वभाव का भान करनेवाले को पर्याय में भी बन्धन मिटकर पूर्ण शुद्ध मोक्षदशा होने लगती है, इसका नाम धर्म है और-यह मोक्षमार्ग है।
आत्मा, देह से भिन्न स्वतन्त्र वस्तु है। वह वस्तु अपने अनन्त स्वभावों से भरपूर है। उसमें एक द्रव्यस्वभाव, दूसरा पर्यायस्वभाव है। ध्रुवरूप द्रव्यस्वभाव में रागादि बन्धन नहीं होता और छूटना भी नहीं होता; वह तो स्वरूप से ही मुक्त है। दु:ख और बन्धन तो अवस्था में है। उन्हें मिटाकर आनन्ददशारूप मोक्षमार्ग प्रगट होता है और फिर पूर्ण आनन्ददशारूप मोक्ष अवस्था प्रगट होती है। ऐसी बन्ध-मोक्षरूप अवस्थाएँ भी आत्मा में होती हैं। बहुत से लोग अवस्था को मानते ही नहीं। अवस्था मानेंगे तो आत्मा अनित्य हो जाएगा - ऐसे भय के कारण एकान्त नित्यता ही मानते हैं । वस्तु के स्वरूप में अवस्था है, तथापि उसे नहीं मानते; इस कारण द्रव्यपर्यायरूप सत् वस्तु जैसी है, वैसी यहाँ सन्तों ने प्रसिद्ध की है।
वस्तु में अवस्थायी द्रव्य तो त्रिकाल है और अवस्था वर्तमान मात्र है। त्रिकाल अवस्थायी द्रव्य तो मुक्तस्वरूप है और अवस्था