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________________ 208 ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा स्वभाव की बात है। आत्मा का शुद्धस्वभाव ही अन्त:तत्त्व है, रागादिक तो बहिर्तत्त्व है और शरीर तो कहीं रह गया। रागादिक औदायिक भाव, वह औपशमिक आदि भाव का कारण नहीं है; बन्धभाव, वह मोक्षभाव का कारण नहीं है। यहाँ कहते हैं कि ऐसे बन्ध और मोक्ष, पर्याय में है; द्रव्य-अपेक्षा से देखो तो उसे बन्धमोक्ष नहीं है। जो बँधा ही न हो, उसे छूटना कैसे कहा जाए? एक व्यक्ति जेल में बँधा हो और फिर छूटे, उसे तो यह कहा जाता है कि तुम छूटे.... तुम मुक्त हुए परन्तु जो कभी जेल के बन्धन में बँधा नहीं, उसे देखकर ऐसा कैसे कहा जा सकता है कि तुम बन्धन में से छूटे? वह तो छूटा हुआ ही था। उसी प्रकार पर्याय में जीव को बन्धन है - अशुद्धता है; अत: पर्याय में शुद्धता और पुक्ति होने पर पर्याय अपेक्षा से ऐसा कहा जा सकता है कि तुम बन्धन में से मुक्त हुए परन्तु द्रव्य तो कभी बँधा ही नहीं, इसलिए द्रव्य मुक्त हुआ - ऐसा नहीं कहते हैं; वह तो मुक्तस्वरूप ही है। जो बँधा हो, वह छूटेगा; जो बँधा ही नहीं, उसे छूटना भी नहीं। इसलिए आत्मद्रव्य में शक्तिरूप मोक्ष है और पर्याय में व्यक्तिरूप मोक्ष होता है - ऐसा द्रव्य-पर्याय का स्वरूप है। शुद्धद्रव्य को देखनेवाली दृष्टि, अनन्त ज्ञान-आनन्द से भरपूर अपने मुक्तस्वरूप को ही देखती है; बन्धन और मोक्ष - ऐसे पर्यायभेद उसमें नहीं दिखते हैं। पारिणामिक परमस्वभाव जैसा सिद्ध का है, वैसा ही अभी प्रत्येक जीव में है; अन्तर है, वह पर्याय में है, उस पर्याय का लक्ष्य छोड़कर ध्रुव द्रव्यस्वभाव को देखने से आत्मा अबद्ध है-मुक्तस्वरूप है-शुद्ध है। पर्याय में मुक्तदशा प्रगट करने के लिए अपने ऐसे स्वभाव के सन्मुख हो....!
SR No.007139
Book TitleGyanchakshu Bhagwan Atma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHarilal Jain, Devendrakumar Jain
PublisherTirthdham Mangalayatan
Publication Year
Total Pages262
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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