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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
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प्रतिमा का अवलम्बन शुभराग के समय होता है। शुद्धता में तो अपने स्वभाव का ही अवलम्बन है, उसमें किसी पर का अवलम्बन नहीं है। जिनप्रतिमाजी के दर्शन-पूजन के शुभराग को मोक्षमार्ग मान ले तो वह भूल है और धर्मी को ऐसा शुभराग होता ही नहीं - ऐसा माने तो वह भी भूल है । जिस भूमिका में जैसा हो, वैसा पहचानना चाहिए। किस भूमिका में कितनी शुद्धता होती है, कितना राग होता है और उस राग में कैसे निमित्त होते हैं ? - ऐसा विवेक धर्मी को होता है ।
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(जिसे ) मुनिदशा के योग्य शुद्धता प्रगट हुई हो और शरीर पर वस्त्र ओढ़कर घुमने का राग हो - ऐसा नहीं हो सकता । वस्त्र के रागसहित- मुनिदशा माननेवाले को मुनिदशा की शुद्धता का परिचय नहीं है। छठवें सातवें गुणस्थान में मुनि को वस्त्र का राग नहीं होता, फिर भी वस्त्र होना मानता है; और चौथे-पाँचवें गुणस्थान में जिनपूजा इत्यादि राग होता है, फिर भी कहाँ उसके निमित्तरूप जिनप्रतिमा आदि का निषेध करता है; इस प्रकार अज्ञानी को धर्म की भूमिका का भान नहीं है और इस भूमिका में कैसे निमित्त होते हैं ? - इसकी भी उसे पहचान नहीं है ।
जिनप्रतिमा का स्वीकार किया; इस कारण कहीं उसके अवलम्बन से मोक्षमार्ग हो जाता है - ऐसा नहीं है। रागरहित आत्मस्वभाव का भान होने पर भी साधकभूमिका में राग बाकी हो, वहाँ जैसे परमात्मा के गुणों का स्तवन शुभराग है, फिर भी वह भाव आता है; उसी प्रकार भगवान की प्रतिमा का अवलम्बन भी शुभराग है, फिर भी वह भाव आता है । उसी समय निज परमात्मा के अवलम्बन से जितनी शुद्धता प्रगट हुई है, उतना ही